वे किसी विशेष समुदाय या संप्रदाय से नहीं हैंबल्कि आम घरों से आती हैं। पेशों से आने के बावजूद उन्होंने संस्कृत को आत्मसात किया है। वेदों उपनिषदों एवं शास्त्रों का गहन अध्ययन किया है और फिर उतरी हैं उस क्षेत्र में जिसे अब तक पुरुष प्रधान माना जाता था।
हाल ही में परिणय सूत्र में बंधीं अभिनेत्री दीया मिर्जा ने इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट लिखा,‘कुछ साल पूर्व अपनी दोस्त की शादी में पहली बार किसी महिला पुरोहित को शादी की रस्में निभाते देखा था। खुश हूं कि उन्हीं शीला अत्ता ने मेरा विवाह संस्कार भी कराया।’ दीया के अलावा इस वर्ष बंगाल के खरका की स्कूल शिक्षिका समर्पिता बोस की शादी भी महिला पुरोहित,डॉ.नंदिनी भौमिक,रुमा रॉय एवं उनके समूह ने संपन्न करायी। खास बात यह रही कि इस विवाह समारोह में भी कन्यादान की रस्म नहीं निभायी गयी। जाधवपुर विश्वविद्यालय की विजिटिंग फैकल्टी डॉ. नंदिनी 2009 में ‘शुभमस्तु’ नामक संगठन के माध्यम से पूरे वैदिक रीति से विवाह, गृह प्रवेश एवं अन्य धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करा रही हैं।
संस्कृत के अलावा अंग्रेजी,हिंदी एवं बांग्ला में जब वे श्लोक पढ़ने के साथ-साथ मंत्रों की व्याख्या करती हैं,तो मंडप में उपस्थित लोग उसे मंत्रमुग्ध होकर सुनते हैं। इतना ही नहीं,उन्होंने जटिल रीति-रिवाजों को लचीला बनाने का प्रयास किया है,जिसे समाज भी मान्यता दे रहा है। सच कहें, तो पुरोहिती कार्य में पुरुषों के एकाधिकार को तोड़ने वाली इन महिलाओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। हालांकि हिंदू धर्म में महिला पुरोहिती की अवधारणा नयी नहीं है। सुधारवादी धारा के तौर पर गठित आर्य समाज ने महिलाओं को पुरोहित बनने व धार्मिक कर्मकांड संपन्न कराने का अधिकार सदियों से दे रखा है। आर्य समाज में लड़कियों के लिए आश्रम एवं गुरुकुलों का विधान है,जहां उन्हें वैदिक साहित्य की शिक्षा दी जाती है। गायित्री परिवार ने महिलाओं की ब्रह्मवादिनी टोली बनाकर उन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिया है। इसमें वे आचार्य पद पर विराजित होकर संस्कृत में धाराप्रवाह मंत्रोच्चार से जन्म से मृत्यु तक के सभी कर्मकांड कराती हैं।
गृहिणी से बनीं पुरोहित,बनायी पहचान: सिक्के का दूसरा एवं सुखद पहलू यह है कि आज आम गृहिणियां,पेशेवर स्त्रियां पुरोहिती में नयी पहचान बना रही हैं। मैसूर की पी. भ्रमरंभा महेश्वरी इसकी साक्षात मिसाल हैं, जिन्हें एक समय न संस्कृत आती थी, न अंग्रेजी और न ही हिंदी। सिर्फ कन्नड़ भाषा का ज्ञान था। लेकिन 35 वर्ष पहले उन्होंने संस्कृत के साथ चारों वेदों, दर्शनशास्त्र एवं उपनिषदों में स्वयं को पारंगत बनाया और पुरोहित के रूप में अपनी एक नयी यात्रा शुरू की। बताती हैं भ्रमरंभा,‘सोचा नहीं था कि यह मेरी नियति होगी। 16 वर्ष की आयु में शादी होने के बाद एक दिन अचानक जब पिता जी का देहांत हो गया,तो मन में अनेक प्रश्न उठने लगे…। आखिर क्यों होती है मनुष्यों की मृत्यु? श्रेष्ठ कर्म करने के बाद भी कष्ट क्यों भोगना पड़ता है? पुरुष पंडित ही क्यों सभी कर्मकांड, धार्मिक अनुष्ठान कराते हैं?
1988 का साल था वह। मैंने पूज्य स्वामी ब्रह्मदेव जी से ये सारे सवाल किये,तो उनका एक ही उत्तर था,’वेदों का अध्ययन करो। तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर वहीं से मिलेगा।’ इसके पश्चात ही उन्होंने शारदा पीठ से संस्कृत की शिक्षा हासिल की। विभिन्न गुरुओं से ऋग्वेद एवं अन्य वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया। फिर पांच-छह महिलाओं ने समूह बनाकर सत्संग की शुरुआत हुई। वह घरों,स्कूलों,कॉलेजों और यहां तक कि जेलों में जाकर गायत्री मंत्र का पाठ, मृत्युंजय जाप,अग्निहोत्र जैसे संस्कार करातीं। धीरे-धीरे उनके कार्य को सराहना मिलने लगी और वे सामूहिक विवाह, उपनयन आदि भी कराने लगीं। अब तक हजारों विवाह संपन्न करा चुकीं भ्रमरंभा कहती हैं,‘मैंने इसके लिए बाकायदा गुरुओं से प्रशिक्षण प्राप्त किया है,ताकि कोई मेरे ऊपर अंगुली न उठा सके। तभी तो मैसूर के अलावा,बेंगलुरु,कोलकाता,दिल्ली, मुंबई,चेन्नई से निमंत्रण आने लगे हैं। लोग बहुत सम्मान देते हैं। चरणस्पर्श करते हैं। राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर के कई सम्मान भी मिले हैं।’ अभी 61 साल की हैं भ्रमरंभा, लेकिन शतक लगाने तक यह कार्य जारी रखना चाहती हैं क्योंकि पुरोहिती को वह सम्मानीय क्षेत्र मानती हैं, जिसमें ईश्वर का आह्वान कर कोई भी कार्य या विधि संपन्न की जाती है।
संस्थानों में मिल रहा महिलाओं को प्रशिक्षण: पुरोहिती में स्त्रियों का बढ़ता दखल अचानक नहीं हुआ है। इसके पीछे उनकी अपनी मेहनत, इच्छाशक्ति एवं पुरातन परंपरा से बाहर निकल नया करने का संकल्प अहम रहा है। साथ ही, उन संस्थानों की पहल भी कारगर रही है, जो महिलाओं को वैदिक ज्ञान में निपुण बनाने का प्रयास कर रही हैं। उन्हें पुरोहिती में प्रशिक्षित कर रही हैं। उदाहरण के लिए, पुणे स्थित‘ज्ञान प्रबोधिनी’ संस्था सभी जातियों के पुरुषों एवं महिलाओं को अनुष्ठान करवाने और पुरोहित बनने के लिए प्रशिक्षण देती है। संस्थान एक वर्षीय पाठ्यक्रम संचालित करता है,जिसमें प्रशिक्षुओं को वैदिक ज्ञान के साथ-साथ सभी प्रकार के संस्कारों में दक्ष बनाया जाता है। इसका लाभ उठाकर अब तक पुणे एवं मुंबई की दो दर्जन से अधिक महिलाएं पुरोहित बन चुकी हैं। वे संस्था के माध्यम से ही पूजा-अनुष्ठान संपन्न कराती हैं। दिलचस्प बात यह भी है कि यहां से संपर्क करने वाले 60 से 70 प्रतिशत लोग महिला पुरोहितों की ही मांग करते हैं। यहीं से प्रशिक्षण प्राप्त कर पुरोहिती कर रहीं अरुणा जोशी बताती हैं,‘मैं एक पौराणिक कथाकार हूं। कभी सोचा नहीं था कि पूजा-अनुष्ठान,विवाह आदि कराऊंगी। लेकिन संस्थान में दाखिला होने के बाद जिस तरह हमारे ज्ञान चक्षु खुले, विभिन्न ग्रंथों के अध्ययन से संस्कारों के बारे में विस्तार से जानने को मिला, उसका परिणाम यह हुआ कि नौकरी के साथ-साथ अब पुरोहित की जिम्मेदारी भी उठा रही हूं। इसमें आनंद आ रहा है।’
गुरु के सान्निध्य में बढ़ रहीं आगे: मैसूर विश्वविद्यालय से एमबीए (एग्री बिजनेस) करने वाली दिव्या का शैक्षणिक रिकॉर्ड शानदार रहा है। पांच गोल्ड मेडल जीते हैं। पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ वर्ष बतौर लेक्चरर कार्य किया है। फिर अपना उद्यम शुरू किया और उसमें रम गयीं। लेकिन मन में हमेशा एक प्रश्न उठता था कि आज भी धार्मिक अनुष्ठान अधिकतर पुरुष ही क्यों संपन्न कराते हैं? उन्हें ही प्रमुखता क्यों दी जाती है? दिव्या की मानें, तो किसी पुरोहित से इसका संतोषप्रद उत्तर नहीं मिला। तब उन्होंने ऐसे गुरु की तलाश शुरू की, जो महिलाओं को वेद का ज्ञान देती हों। 2004 में उन्होंने मैसूर की भ्रमरंभा महेश्वरी को एक अनुष्ठान संपन्न कराते देखा। वह उनसे मिलीं और शुरू हो गयी वेदों को जानने, उनका अध्ययन करने की एक नयी यात्रा। दिव्या कहती हैं,‘हमें अपना श्रेष्ठ कर्म करना होता है। समुचित ज्ञान अर्जन से वह आत्मविश्वास आता है,जिससे किसी भी प्रकार की उपेक्षा,कमी या प्रतिस्पर्धा संबंधी प्रश्न गौण हो जाते हैं। क्योंकि तब हम अपनी कला में दक्ष होते हैं और कोई स्त्री के ऊपर यह अंगुली नहीं उठा पाता है वह क्या कर सकती है और क्या नहीं? एक वाक्य में कहें, तो सारी नकारात्मकता एवं प्रतिकूलताओं को त्यागकर परफेक्ट बनना है।’यह सच है कि महिलाओं को अपना स्थान बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। उन पर सवाल उठाए गए हैं कि एक स्त्री होकर वे कैसे यज्ञोपवीत संस्कार करा सकती हैं? लेकिन महिला पुरोहितों ने भी ज्ञान एवं अध्ययन से साबित किया है कि असंभव कुछ भी नहीं। इसलिए उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है।
अध्ययन के साथ किया निरंतर अभ्यास: मैसूर की पुरोहित भ्रमरंभा महेश्वरी ने बताया कि मंत्र पढ़ने से कोई पुरोहित नहीं बन जाता। मंत्रों का शुद्ध उच्चारण करना एवं उसके अर्थ को जानना भी उतना ही आवश्यक है। इसके लिए वेदों का संपूर्ण ज्ञान अर्जन एवं अध्ययन आवश्यक है। वेद को वैसे ही आध्यात्मिकता का मूल माना जाता है। वैदिक ज्ञान हमारे विचारों को खोलते हैं। उसे पंख देते हैं। जैसे, पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में सदियों से स्त्रियों को दोयम दर्जा दिया गया है। विवाह संस्कार में कन्यादान की रस्म इसका सूचक है। कन्या कोई वस्तु नहीं, जिसका दान किया जाये।
शास्त्रों में कन्या प्रधान विधि बतायी गयी है,जिसमें कन्या की जिम्मेदारी वर पक्ष को सौंपी जाती है। इसलिए हम किसी विवाह समारोह में कन्यादान नहीं कराते। अपनी बात करूं, तो मैंने शून्य से शुरुआत कर नींव को मजबूत कर समाज में एक प्रतिष्ठा पायी है। अध्ययन के साथ निरंतर अभ्यास किया है। वैदिक ज्ञान से शक्ति एवं नैतिक बल मिला है। इसलिए अन्य स्त्रियों को ज्ञान से परिचित कराना चाहती हूं। अब तक 40 से 50 महिला पुरोहितों को प्रशिक्षित कर चुकी हूं। इसमें देश के अलावा अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया, डन,अफ्रीका,डेनमार्क जैसे देशों की महिलाएं एवं पुरुष भी शामिल हैं। इन दिनों वैदिक मंत्रों की ऑनलाइन ट्रेनिंग भी दे रही हूं।
प्रशिक्षण से आया आत्मविश्वास: पुणे की पुरोहित अरुणा जोशी ने बताया कि मुझे ज्ञान प्रबोधिनी से जुड़कर बहुत कुछ सीखने को मिला। वहां जिस प्रकार प्रशिक्षण पूरा करने के बाद तीन महीने तक वरिष्ठ महिला पुरोहितों के साथ काम करने का अवसर मिलता है,उससे एक आत्मविश्वास आता है। नये-नये स्थानों अथवा परिवारों में जाने के बाद असहजता समाप्त हो जाती है। मैं विगत 5 वर्षों से नामकरण, उपनयन,विवाह, वास्तु शांति पाठ, गणेश-लक्ष्मी पूजन से लेकर अंतिम संस्कार से संबंधित हर प्रकार के अनुष्ठान करा रही हूं। यहां तक कि बेटियों का भी उपनयन कराती हूं,जो अधिक प्रचलित नहीं है। पूजा कराने से पहले बाकायदा प्रबोधन करती हूं। मैं संस्कृत के अलावा मराठी,हिंदी, अंग्रेजी में अनुष्ठान कराती हूं। श्लोकों,मंत्रों की व्याख्या करती हूं। इसलिए यह प्रयास भी रहता है कि परिवार के सभी सदस्य उस अनुष्ठान में उपस्थित रहें औऱ उन्हें इसका पूरा लाभ मिले।
समाज कर रहा है स्वीकार: पहले महिलाएं शास्त्र इत्यादि का अधिक अध्ययन नहीं करती थीं। पुरोहिती में संस्कृत के विद्वानों का वर्चस्व होता था। लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी हैं। शास्त्रों में कहीं लैंगिक भेद का उल्लेख नहीं मिलता है कि अनुष्ठान या कर्मकांड सिर्फ पुरुष ही करा सकते हैं। गार्गी, मैत्रेयी का का होना इस बात को और पुख्ता करता है। इसलिए आज महिला पुरोहितों को तमाम पूजा-पाठ, विवाह संस्कार, वास्तु शांति पाठ, उपनयन, श्राद्ध व अन्य धार्मिक अनुष्ठान संपन्न कराने के लिए सहर्ष आमंत्रित किया जा रहा है। उन्हें समुचित आदर एवं सम्मान मिल रहा। नयी पीढ़ी के साथ बड़े-बुजुर्गों ने भी हमें स्वीकार करना शुरू कर दिया है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश में ऐसी अनेक संस्थाएं हैं, जो महिलाओं को बाकायदा पुरोहिती का प्रशिक्षण दे रही हैं। महिला पुरोहित अन्य स्त्रियों के लिए प्रेरणा बन रही हैं।
वेद समाप्त कर देता है सारी दुविधा: बेंगलुरु की पुरोहित दिव्या मंजूनाथ ने बताया कि मैं अपनी गुरु के साथ धार्मिक अनुष्ठानों,पूजा-विवाह संस्कारों को संपन्न कराने में सहयोग करती हूं। इससे पुरोहिती का प्रायोगिक प्रशिक्षण मिल जा रहा है। मंत्र तो कहीं से याद किये जा सकते हैं, लेकिन उपयुक्त क्रियाओं को जानने व समझने में सजीव समारोह बहुत सहायक होते हैं। सबसे सुखद यह है कि मैं अपने कारोबार को संभालते हुए ऐसा कर पा रही हूं। परिवार का पूरा सहयोग मिल रहा है। शेष मदद वेदों के अध्ययन से मिल जा रही है। उसमें संपूर्ण ज्ञान निहित है। किसी से कोई प्रश्न करने की आवश्यकता ही नहीं। सारी दुविधाएं समाप्त हो जाती हैं