दिल्ली : उपराज्यपाल के अधिकारों को लेकर छिड़ी लड़ाई चिंताजनक

केंद्र सरकार ने दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र शासन अधिनियम, 1991 में संशोधन को हाल में मंजूरी दी है। इससे यहां के उपराज्यपाल के अधिकारों में वृद्धि होगी। पूर्व के अनुभवों को देखते हुए कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का प्रशासन और विकास केजरीवाल बनाम मोदी और आम आदमी पार्टी बनाम भारतीय जनता पार्टी की नाक की लड़ाई में ऐसा उलझ गया है कि कोई ठोस कामकाज होने की बजाय हर दो चार महीने पर कोई नाटक खड़ा हो जाता है। इससे दिल्ली की जनता की भावनाओं का भी मजाक हो रहा है और संविधान का भी।

उल्लेखनीय है कि दिल्ली देश की राजधानी होने के साथ ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र भी है। यानी दिल्ली पूर्ण राज्य न होकर अर्धशासी राज्य है। संविधान का अनुच्छेद 239एए दिल्ली को अपनी विधायी निर्वाचित सरकार होने के लिए विशेष दर्जा प्रदान करता है। यही संवैधानिक स्टेटस मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच बिग बॉस होने का टकराव पैदा करता है।

गौरतलब है कि बजट सत्र में एनसीटी ऑफ दिल्ली (संशोधन) विधेयक, 2021 को सूचीबद्ध रखा गया है, संसद में अगर यह विधेयक पारित होता है तो इससे उपराज्यपाल और शक्तिशाली होंगे। इस विधेयक में प्रविधान किया गया है कि अब दिल्ली सरकार को विधायी प्रस्ताव उपराज्यपाल के पास कम से कम 15 दिन पहले और प्रशासनिक प्रस्ताव सात दिन पहले पहुंचाने होंगे। केंद्र शासित प्रदेश होने के कारण दिल्ली के उपराज्यपाल को कई अधिकार मिले हुए हैं। हालांकि इन्हीं अधिकारों को लेकर दिल्ली सरकार तथा उपराज्यपाल बीच टकराव की स्थिति बन जाती है। पिछले कुछ वर्षो में ऐसा कई मौकों पर देखने को मिला है, फिर चाहे वह किसी के ट्रांसफर-पोस्टिंग का मसला हो या किसी फाइल को रोकने की बात हो या फिर कोरोना संकट के दौरान दिल्ली के अस्पतालों में बाहरी राज्यों के मरीजों के इलाज पर रोक लगाने के दिल्ली सरकार के फैसला का हो।

यह कड़वी हकीकत है कि दिल्ली की वर्तमान केजरीवाल सरकार और केंद्र सरकार के बीच हमेशा इस बात को लेकर संघर्ष चलता है कि दिल्ली में इस काम के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है या उस काम के लिए दिल्ली सरकार जिम्मेदार है। दोनों पक्षों के बीच अधिकारों के सवाल पर टकराव के मसले पर करीब ढाई साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला भी दिया था। लेकिन हालात जस के तस बने हैं। जबकि दिल्ली के समुचित विकास के लिए राजनीतिक दलों को अपने अहं भाव से ऊपर उठकर संविधान की भावना को समझने की जरूरत है और बेवजह का विवाद उठाकर संविधान का मजाक बनाना उचित नहीं है।

विवाद के कारण : दिल्ली की स्थिति अन्य राज्यों या केंद्र शासित क्षेत्र से अलग है। केंद्र शासित क्षेत्र होते हुए भी दिल्ली की अपनी विधानसभा है, जहां अन्य राज्यों की तरह सुरक्षित सीटों का भी प्रविधान है। विधायकों का चुनाव सीधे जनता करती है। लेकिन संघ शासित क्षेत्र दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है। इसी वजह से लोगों की चुनी गई सरकार भी अपनी मर्जी के हिसाब से फैसले नहीं ले सकती है, उसे ज्यादातर कार्यो के लिए उप राज्यपाल से अनुमति लेनी पड़ती है जो कि राष्ट्रपति के अधीन काम करते हैं और यदि केंद्र व राज्य में दो अलग-अलग पार्टयिों की सरकारें हैं तो राज्य सरकार के लिए काम करना काफी मुश्किल हो जाता है। शायद यही कारण है कि दिल्ली की वर्तमान केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल अनिल बैजल के बीच हमेशा खींचातानी की खबरें आती रहती हैं।

दिल्ली विकास प्राधिकरण : दूसरा कारण है दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए), जो दिल्ली की सारी जमीन पर नियंत्रण रखती है और अगर दिल्ली में किसी सरकारी काम के लिए जमीन चाहिए तो उसके लिए डीडीए की मंजूरी आवश्यक है, जबकि डीडीए भी केंद्र सरकार को रिपोर्ट करती है। इस वजह से भी दिल्ली सरकार विकास की किसी योजना को सलीके से कार्यान्वित नहीं कर पाती है। इन तमाम कारणों से दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच मचे घमासान में नुकसान दिल्ली के लोगों का होता है।

नगर निगम : तीसरी वजह है दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी। ये भी केंद्र सरकार के ही नियंत्रण में है और राज्य सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं है। इसका खामियाजा आम जनता को उठाना पड़ता है और दिल्ली के नागरिकों को अपने कामों के लिए इन तीनों विभागों से डील करना पड़ता है। दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली में जमीन यानी दिल्ली विकास प्राधिकरण उपराज्यपाल के जरिये केंद्र सरकार के अधीन है और दिल्ली सरकार जमीन से जुड़े हुए फैसले नहीं ले सकती। इतना ही नहीं, अगर दिल्ली सरकार को कहीं किसी सरकारी परियोजना के लिए जमीन की जरूरत हो तो उसे उपराज्यपाल और केंद्र सरकार की दया पर निर्भर रहना पड़ता है। गौर करने वाली बात है कि संविधान के 69वें संशोधन के जरिये राज्य सरकार को मिलने वाले प्रशासन, पुलिस और जमीन के अधिकार को केंद्र सरकार ने अपने ही पास ही रखा है। अभी मौजूदा स्थिति ये है कि अगर किसी मुद्दे पर पुलिस और प्रशासन की व्यवस्था में गड़बड़ी का माहौल बनता है तो दिल्ली के मुख्यमंत्री बस कार्रवाई की मांग कर सकते हैं। दिल्ली पुलिस स्थानीय विधायकों और दिल्ली सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं है।

दिल्ली के केंद्र शासित प्रदेश होने की स्थिति में दिल्ली की पुलिस भी उपराज्यपाल के जरिये सीधे-सीधे केंद्र सरकार के गृह मंत्रलय के नियंत्रण में है और दिल्ली की चुनी हुई सरकार के आदेश मानने के लिए पुलिस बिल्कुल बाध्य नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि जनता की ओर से चुनी जाने के बावजूद दिल्ली सरकार के पास राष्ट्रीय राजधानी के शासन में उसके अधिकार सीमित हैं। इसी वजह से आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग समय-समय पर उठाती रहती है। हालांकि देश की राजधानी होने समेत सुरक्षा संबंधी कारणों से तार्किक रूप से यह मांग सही नहीं लगती है, लेकिन इस कारण से निरंतर होने वाली टकराव की स्थिति को रोकने के लिए बीच का एक व्यावहारिक रास्ता निकालना चाहिए।

[शोध अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय]