ममता बनर्जी प्रदेश और सत्तारूढ़ दल की मुखिया होकर केंद्र में सत्तासीन दल के अध्यक्ष को कहती हैं उनके (भाजपा अध्यक्ष) पास कोई और काम नहीं है। अक्सर गृह मंत्री यहां होते हैं बाकी समय उनके चड्ढा नड्डा गड्ढा फड्डा भड्डा यहां होते हैं।
बंगाल में विधानसभा चुनाव की घोषणा होने में अभी कुछ माह बचे हैं। परंतु सियासी दलों में अभी से ही व्याकुलता और बेचैनी चरम की ओर बढ़ रही हैं। विशेषकर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस में जो बेचैनी दिख रही है, उसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है। हर बेचैनी और बौखलाहट के पीछे कोई बड़ी आहट और आशंका छुपी होती है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के काफिले पर हमले और फिर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के तीखे शब्दबाण को क्या कहा जाएगा, बौखलाहट या कुछ और। जब उनके पास भीड़ नहीं जुटती है, तो वे अपने कार्यकर्ताओं से नौटंकी कराते हैं।
आखिर इन तीखे शब्दों का अर्थ क्या है? भाजपा का कहना है कि ममता को हार की आहट लग गई है जिसके चलते वह बौखलाहट में हैं। आखिर इस बौखलाहट की वजह क्या है? यह एक बड़ा ही गंभीर सवाल है। राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-वितर्क, आलोचना- समालोचना होती रहती है, लेकिन अशोभनीय भाषा को प्रयोग और संघर्ष तथा हमले यूं ही नहीं होते। इसकी जद में कई ऐसी चीजें होती हैं, जो अशोभनीय भाषा के इस्तेमाल से लेकर हिंसा का कारक होती है।
जेपी नड्डा के काफिले पर हुए पथराव में क्षतिग्रस्त एक वाहन।
यदि ताजा घटनाक्रम पर नजर डालें तो पहले कोलकाता में भाजपा अध्यक्ष नड्डा को काला झंडा दिखाया गया या फिर डायमंड हार्बर जाते समय उनके काफिले पर हमला हुआ। शनिवार को हालीशहर में गृह संपर्क अभियान के दौरान भाजपा नेता की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। सभी घटनाओं में आरोपित तृणमूल हैं। ऐसे में सवाल यही है कि आखिर ऐसी घटनाएं क्यों हो रही है? इन जुबानी पथराव, हमले व हिंसा को सरल भाषा में डिकोड करें तो एक ही शब्द सामने आता है.. बौखलाहट। मानव स्वभाव में है कि अगर कोई व्यक्ति किसी के घर में जाकर उसे चुनौती देना शुरू कर दे तो बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें चुनौती बर्दाश्त नहीं होती और उसका प्रतिफल बौखलाहट में अशोभनीय भाषा और हिंसा के रूप में सामने आता है।
दरअसल, पिछले 10 वर्षो के बंगाल की सियासत पर नजर डालते हैं तो 34 साल के वामपंथी शासन को उखाड़ फेंकने वाली तृणमूल प्रमुख लगातार दो बार बड़े अंतर से चुनाव जीतकर सीएम बनीं। 2017 तक ममता के सामने बंगाल में एक भी ऐसी पार्टी नहीं थी जो उनकी सत्ता को चुनौती दे सके। 2011 में वाम शासन का अंत करने के लिए उन्होंने दो दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और तृणमूल गठबंधन को 48.4 फीसद मत व 227 सीटों पर जीत मिली थी, जिसमें तृणमूल-184, कांग्रेस-42 और सोशलिस्ट यूनिट सेंटर ऑफ इंडिया (एसयूसीआइ) को एक सीट शामिल थी। वहीं 2016 में ममता ने अकेले दम पर चुनाव लड़ा और 44.9 फीसद वोट प्राप्त कर 211 सीटें जीती। इसके बाद ममता को लगने लगा कि अब उन्हें बंगाल में कोई हरा नहीं सकता। वह खुद को अजेय मानने लगीं। परंतु 2018 के पंचायत चुनाव से खेल बदल गया और पिछले लोकसभा चुनाव में 18 सीटें जीत कर भगवा दल ने ममता का भ्रम तोड़ दिया।