पीएम मोदी ने जिस एफडीआइ के खतरे की ओर इशारा किया, उसके पीछे विदेशी धन की ताकत है
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एफडीआइ की एक नई परिभाषा दी। उन्होंने कहा कि एफडीआइ यानी फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी। देखा जाए तो देश में इसकी नींव 1967 में ही पड़ गई थी। तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने तब लोकसभा में कहा था, ‘जिन दलों और नेताओं को विदेशों से धन मिले हैं, उनके नाम जाहिर नहीं किए जा सकते, क्योंकि उससे उनके हितों को नुकसान पहुंचेगा।’ उनके बयान के बाद विदेश से मिले नाजायज धन को लेकर इस देश के अनेक नेताओं, संगठनों और दलों की झिझक समाप्त हो गई। उसके दुष्परिणाम आज तक नजर आ रहे हैं। याद रहे कि तब धन पाने वालों में कांग्रेस सहित कई प्रमुख दल शामिल थे। समय बीतने के साथ इस देश की राजनीति एवं अन्य क्षेत्रों में विदेशी पैसों का दखल बढ़ता चला गया। पहले विदेशी धन का उद्देश्य सीमित था। अब न सिर्फ व्यापक हो गया है, बल्कि खतरनाक भी बन गया है। पहले विचारों को प्रभावित करने और लोगों को अपनी ओर मोेड़ने के लिए विदेशी तत्वों ने भारत में पैसे झोंके, पर अब तो देश को तहस-नहस करने, अशांति फैलाने और अंतत: देश को तोड़ने की कोशिश में विदेशी पैसों का इस्तेमाल हो रहा है। यह देश के खिलाफ अघोषित युद्ध जैसा है। इस गंभीर स्थिति से निपटने के लिए तदनुसार सख्त कानून बनाने की ओर अभी केंद्र सरकार का ध्यान नहीं है। नतीजतन हमारी अदालतें भी इस नई एफडीआइ के वाहकों के खिलाफ वांछित सख्ती नहीं बरत पा रही हैं।
एनजीओ के बहाने गलत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विदेशी धन पर लगी रोक
हालांकि 2014 के बाद एनजीओ के बहाने गलत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आने वाले विदेशी धन पर काफी हद तक रोक लगी है, पर हवाला चैनलों पर प्रभावकारी रोक लगना अब भी बाकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस नए ढंग की एफडीआइ के खतरे की ओर इशारा किया है, उसके पीछे विदेशी धन की ताकत है। अब यह बात छिपी हुई नहीं है कि कुछ देसी-विदेशी शक्तियों का घोषित और अघोषित उद्देश्य इस देश को तोड़ना है। काश! 1967 में ही इस स्रोत पर प्रभावी रोक लगा दी गई होती तो आज स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती। चिंताजनक बात यह है कि बाद के वर्षों में भी विदेशी धन की आवक पर कारगर रोक नहीं लग सकी। अब जरा हम 1967 में चलें। तब आम चुनाव के बाद देश के नौ राज्यों से कांग्रेस सत्ताच्युत हो गई। लोकसभा में भी कांग्रेस का बहुमत घट गया। इस हार से चिंतित तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अनुमान लगाया कि शायद विदेशी पैसों ने चुनाव नतीजे पर असर डाला है। उन्होंने चुनावी चंदे के बारे में खुफिया एजेंसी से जांच कराई। उसकी रपट के अनुसार तब कांग्रेस सहित कई प्रमुख दलों ने चुनाव लड़ने के लिए किसी न किसी देश से धन लिया था। लोकसभा में यह मांग की गई कि सरकार उन दलों और व्यक्तियों के नाम बताए, जिन्हेंं विदेशी धन मिला है, पर चव्हाण ने वह मांग नहीं मानी। तब दुनिया में शीत युद्ध का दौर था। भारत सहित विभिन्न देशों में अमेरिका और सोवियत संघ अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने की कोशिश में लगे हुए थे। इसके लिए वे पैसे खर्च कर रहे थे। कम्युनिस्ट देश भारत में भी कम्युनिस्टों पर निर्भर सरकार चाहते थे। दूसरी ओर अमेरिका ऐसी किसी कोशिश को विफल कर देना चाहता था यानी यहां केजीबी और सीआइए, दोनों सक्रिय थे।
केजीबी ने भारत में सरकारी नीतियों को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए पैसे बांटे थे
देश में ‘सोवियत सक्रियता’ का सुबूत तब मिला जब 2005 में वहां की खुफिया एजेंसी केजीबी की भारत में गतिविधियों पर लिखित पुस्तक ‘द मित्रोखिन अर्काइव-दो’ सामने आई। इसके अनुसार केजीबी ने भारत में विचारधारा के प्रचार और सरकारी नीतियों को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए पैसे बांटे थे। बाद में जैन हवाला कांड ने तो विदेशी धन के आगमन को और भी आसान बना दिया। पुलिस ने 25 मार्च, 1991 को श्रीनगर में अशफाक हुसैन लोन को गिरफ्तार किया। वह हिजबुल मुजाहिदीन का सदस्य था। उसके पास से 16 लाख रुपये बरामद किए गए। वे रुपये कश्मीर में आतंकवादियों को बांटे जाने थे। उससे पूछताछ के आधार पर पुलिस ने जेएनयू के एक शोध छात्र शहाबुद्दीन गौरी को गिरफ्तार किया। उससे मिली जानकारी के आधार पर सीबीआइ ने हवाला व्यापारी जैन बंधुओं के यहां छापा मारा। उसमें भारी रकम के अलावा एक डायरी भी मिली।
चुनाव फंड में पारदर्शिता न होने के कारण हवाला जैसे कांड होते हैं
छानबीन से पता चला कि उन्होंने देश के 115 बड़े नेताओं और अफसरों को कुल मिलाकर 64 करोड़ रुपये दिए थे। तब के विदेश राज्यमंत्री सलमान खुर्शीद के अनुसार चुनाव फंड में पारदर्शिता न होने के कारण हवाला कांड जैसे कांड होते हैं, पर सवाल यह भी उठा कि क्या कोई भी व्यक्ति आपको पैसे देने आएगा तो बिना उसका ‘कुल-गोत्र’ जाने उससे आप पैसे ले लेंगे? उसका असल परिचय जानने की कोशिश भी नहीं करेंगे? यदि तब सही से जांच हो जाती और कुछ बड़ी हस्तियों को जेल की हवा खानी पड़ती तो आज ‘नई एफडीआइ’ की चर्चा नहीं हो रही होती।
हवाला कारोबारियों पर कड़ी नजर रखी गई होती तो टुकड़े-टुकड़े गिरोह को विदेशी पैसे नहीं मिलते
माना जाता है कि राजनीतिक हित सध जाने के बाद हवाला कांड में लीपापोती करा दी गई। यह लीपापोती ऐसे कांड में हुई जिसमें आतंकवाद का तत्व भी जुड़ा हुआ था। साफ है कि हवाला कारोबारियों पर शुरू से ही कड़ी नजर रखी गई होती तो आज इस देश के टुकड़े-टुकड़े गिरोह को विदेशी पैसे मिलने में दिक्कत आती। हालांकि आतंकवाद के प्रति मौजूदा शासकों का रवैया हाल के वर्षों में काफी बदला जरूर है, पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है। आज कृषि कानून विरोधी आंदोलन के बहाने जो कुछ लोग राजसत्ता को चुनौती दे रहे हैं, उनमें से कतिपय के विदेशी कनेक्शन हैं। कुछ ‘आंदोलनजीवियों’ के तो विदेशी कनेक्शन हैं ही। कैसे कोई एक ही व्यक्ति जो कभी जेएनयू में अफजल गुरु की बरसी मनाने वालोें के साथ होता था, वही कृषि कानून विरोधी आंदोलन के भी साथ दिखता है। वही शख्स शाहीन बाग में भी भीड़ को बौद्धिक खुराक देता नजर आता था। तोड़फोड़ एवं देशद्रोही नारे लगाने वाले तत्व बारी-बारी से तीनों जगह पाए गए हैं। इससे पता चलता है कि आज हमारे देश के सामने कितने बड़े-बड़े खतरे मौजूद हैं। उनसे हमें मुकाबला करना ही होगा। इसके लिए यह जरूरी है कि हमारा देश आर्थिक रूप से काफी मजबूत हो जाए।