कर्नाटक की जीत से उत्साहित कांग्रेस ने पटना में 23 जून को होने वाली विपक्षी एकता की बैठक में शामिल होने का संकेत दे दिया है। इसकी पुष्टि जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने की है, बाकायदा यह ऐलान भी कर दिया है कि इसमें कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी शामिल होंगे और राहुल गांधी भी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी आएंगी, एनसीपी नेता शरद पवार भी। अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन और एम के स्टालिन भी आएंगे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली के अपने एजेंडे के तहत भी सबसे समर्थन मांग रहे हैं और इसे भी विपक्षी एकता की दिशा में एक कोशिश के तौर पर ही देखा जा रहा है।

अरविंद केजरीवाल की अखिलेश यादव से मुलाकात के दौरान भी विपक्षी एकता के सवाल पर बातचीत हुई है, ऐसा बताया जा रहा है। लेकिन केजरीवाल अभी पटना जाएंगे या नहीं, यह तय नहीं है। नीतीश कुमार ने लगभग हर विपक्षी दल के अध्यक्ष और प्रमुख नेताओं से निजी तौर पर मिलकर उन्हें साथ लाने और 2024 में केन्द्र से भाजपा को हटाने की जो मुहिम शुरू की है, वह बतौर ललन सिंह अब आकार लेने लगी है।

हरकिशन सिंह सुरजीत की राह पर नीतीश

एक जमाने में विपक्षी एकता की यह पहल सीपीएम के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने की थी। 1996-97 में कांग्रेस के खिलाफ भाजपा समेत सभी विपक्षियों को एकजुट करने और राष्ट्रीय मोर्चा बनाने की पहल हो या फिर 2004 में भाजपा के खिलाफ कांग्रेस समेत तमाम विपक्षियों को जोड़कर यूपीए को मजबूत करने की पहल, हरकिशन सिंह सुरजीत ने दो महत्वपूर्ण मौके पर राजनीतिक जरूरतों को देखते हुए गठबंधन की राजनीति की नई परिभाषा गढ़ी थी। क्या नीतीश कुमार आज के हरकिशन सिंह सुरजीत बन सकते हैं?

दरअसल वामपंथी पार्टियों की ताकत और मुख्यधारा की राजनीति में उनकी हैसियत का अंदाजा हमेशा से सभी दलों को रहा है। तब मुलायम सिंह भी थे, ज्योति बसु जैसे नेता थे, शरद यादव थे और सियासत का स्तर इतना नहीं गिरा था। राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं तब भी थीं, अब भी हैं। लेकिन अब की स्थितियां पहले से अलग हैं। ज्यादातर पार्टियों का नेतृत्व बदल गया है, एक नई पीढ़ी ने सियासत को अपने अपने तरीके से देखा है।

भाजपा ने हमेशा से इसी बिखराव का फायदा उठाया है। ज्यादातर क्षेत्रीय दलों के अपने अपने एजेंडे हैं और हर राज्य की अपनी-अपनी स्थितियां हैं। लेकिन मोदी सरकार के नौ साल में जिस तरह इन पार्टियों ने लगातार खुद को कमजोर होते देखा, देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को चरमराते देखा और खुद को तमाम तरह की जांच के जाल में उलझते देखा, आम जनता के मुद्दों को गहराई से महसूस किया, तो यह साफ हो गया कि अब इससे तभी लड़ा जा सकता है जब एक बार फिर 1997 या 2004 जैसी एकता और गठबंधन बने।

वामपंथी पार्टियों ने हमेशा से इसके लिए कोशिश की। सीपीआई नेता अतुल अंजान हों या डी.राजा, सीपीएम महासचिव सीताराम यचुरी हों या फिर सीपीआईएमएल के नेता, सबने अपने-अपने स्तर पर तब भी कोशिशें कीं और अब एक बार फिर अपने-अपने स्तर पर उन्होंने यह अभियान चलाया है कि मोदी को हराना है तो कांग्रेस समेत सभी को साथ आना ही होगा।