झारखंड क्रिकेट के मालिकों का हाल गजब है। राज्य में जब कोरोना महामारी का प्रभाव चरम पर था तब उसने टूर्नामेंट कराया। पुरस्कार बांटने मुख्यमंत्री तक पहुंचे। अब वायरस के संक्रमण का प्रभाव थमता दिख रहा है। टीकाकरण की प्रक्रिया भी चल रही है। फिर भी कोई आधिकारिक टूर्नामेंट शुरू होने के लक्षण नहीं दिख रहे। वहीं महिलाओं का प्रीमियर लीग टाइप टूर्नामेंट शुरू करने की घोषणा कर दी गई है। अब तो अंतरराष्ट्रीय मैच खेले जा रहे हैं। वहीं जेएससीए के नियमित टूर्नामेंट पर संशय की स्थिति क्यों है, ये सवाल तो है ही। क्रिकेट टूर्नामेंट की आस में खिलाड़ी अभ्यास में पिले पड़े हैं। वे लोकल क्रिकेट प्रशासकों से जानना चाहते हैं कि इस बार टूर्नामेंट होगा या नहीं। जिला क्रिकेट संघ के लोगों को भी इसकी जानकारी नहीं होती। दरअसल जेएससीए की नई कमेटी आने के बाद जिला संघों से संवादहीनता बढ़ी है।
वाट्सएप पर ही तीरंदाजी
धनबाद तीरंदाजी संघ भले ही मैदान में नहीं दिखे, लेकिन वाट्सएप पर इसकी सक्रियता काबिले तारीफ है। 13 फरवरी से तीन राज्यस्तरीय टूर्नामेंट होने हैं। चाईबासा में इंडियन स्टाइल, सिल्ली में कंपाउंड तो बोकारो में रिकर्व प्रतियोगिता होनी है। इनमें शिरकत करने के लिए कई जिलों में जिला स्तरीय टूर्नामेंट हुए जिनके विजेता राज्यस्तरीय टूर्नामेंट में खेलेंगे। धनबाद में ऐसा कोई आयोजन नहीं हुआ। जिला संघ ने निर्णय लिया कि साल भर पहले जो चैंपियनशिप हुई थी, उसके विजेता तीरंदाजों को इसमें भेजा जाएगा। मजे की बात यह है कि इनमें कई अभ्यास से दूर हैं। इसमें खिलाडिय़ों को खुद आने-जाने और खाने-पीने का खर्च करना पड़ता है। कोरोना काल में कई की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई है। इस कारण वे भाग लेने में अक्षम हैं। दूसरी ओर, टच में रह रहे तीरंदाज को भागीदारी का अवसर नहीं मिलेगा, मगर संघ को इसकी चिंता कहां।
खेल का कीड़ा जिसे काटे …
कहते हैं खेल का कीड़ा जिसे काट ले, वह मैदान का ही होकर रह जाता है। बात एक राजेश सिंह की। मुगमा में रहते हैं। क्रिकेटर हैं। उम्र 40 पार। पहले नेताजी स्पोर्टिंग से खेलते थे। अब डीसीए के मैचों में अंपायङ्क्षरग भी करते हैं। मैदान से इतना लगाव कि इन मैचों की रिकॉर्डिंग करते हैं और एडिट कर यूट्यूब पर डाल देते हैं। हाल ही में चैलेंजर ट्रॉफी के फाइनल में ट्राईपोड पर कैमरा रख रिकॉर्डिंग करते दिखे। बात होने लगी तो कई पहलू सामने आए। बताने लगे कि खेल प्रेम उनको मैदान की ओर खींचता रहता है। दुबई काम करने गए तो खाली वक्त में इसका शौक लग गया, जो अब जुनून बन चुका है। उन्हें उस वक्त काफी खुशी मिली जब एक जूनियर क्रिकेटर ने बताया कि उसने वीडियो में अपने आउट होने के तरीके का विश्लेषण कर बल्लेबाजी सुधार ली।
भूखे पेट भजन कैसे होए गोपाला
एक-दो नहीं, जिले में कई क्रिकेट कोचिंग कैंप हैं। अपने बच्चों को धौनी, तेंदुलकर, कोहली बनाने का सपना देख रहे अभिभावक पैसे खर्च करने में कंजूसी नहीं करते। इन कैंपों से जुड़े कोच खासा कमा रहे हैं। वहीं फुटबॉल, एथलेटिक्स और आर्चरी के कोच फटेहाल हैं। इन खेलों में ग्रामीण परिवेश और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चे ही दिलचस्पी दिखाते हैं। वे कैंप के लिए राशि खर्च नहीं कर पाते। ऐसे बच्चों के लिए टाटा फीडर सेंटर ईश्वरीय सौगात से कम नहीं था, मगर वो बंद कर दिया गया। कोच को छह हजार रुपये मानदेय मिलना बंद। परिवार चलाने की जंग में मैदान छूट गया। स्थिति ऐसी है कि फुटबॉल में उपविजेता टीम फीडर सेंटर इस बार धनाभाव में जिला लीग नहीं खेल पाएगी जबकि इसी फीडर सेंटर से निकले कई खिलाड़ी चर्चिल ब्रदर्स, जमशेदपुर एफसी जैसी टीमों में खेल रहे हैं।