मत्स्य नगर अथवा मत्स्यपुरी। महाभारत काल में अलवर की यही पहचान थी। महाभारत से पूर्व राजा विराट के पिता वेणु ने मत्स्यपुरी को अपनी राजधानी बनाया था। अरावली की गाेद में बसे अलवर का अपने किलों, झीलों, हेरीटेज हवेलियों व सरिस्का अभयारण्य के बाघों के कारण अाज विश्व पर्यटन मानचित्र पर विशेष स्थान है। पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दिन सरिस्का में ही बिताए थे। यहां का बाला किला, जयसमंद और सिलीसेढ़ झील, अजबगढ़, राजौरगढ़, सिटी पैलेस, फतहगंज गुंबद व भानगढ़ किला पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं, मगर अलवर की पहचान इससे आगे भी है। यहां की माटी स्वामी विवेकानंद से जुड़ी कई स्मृतियां संजाेए हैं।
स्वामी जी ने ही अपने रोचक अंदाज में व अकाट्य तर्क शक्ति से अलवर के पांचवें राजा मंगल सिंह को मूर्ति पूजा का मर्म समझाया था। स्वामी विवेकानंद का जिक्र चलते ही अलवर निवासी 74 वर्षीय एडवोकेट हरिशंकर गोयल की आंखों में चमक आ जाती है। उन्होंने स्वामी जी से जुड़े हर विषय का गहराई से अध्ययन किया है। मत्स्य नगर के लाला गोविंद सहाय के पौत्र राजाराम वियजवर्गीय के पास आज भी धरोहर के रूप में स्वामी जी की शिकागो से भेजी पांती मौजूद है। शिकागो का भाषण दुनिया में चर्चित हुआ, मगर शिकागो से भेजी इस पांती के माध्यम से अलवर के लोगों को दिया गया स्वामी जी का संदेश भी कम प्रेरक नहीं है। वर्षों बाद भी उनकी वाणी अलवर के कण-कण में गुंजायमान है। अलवर में स्थापित विशाल पाषाण व छोटी कांस्य प्रतिमा और स्मारक अतीत का स्मरण कराते हैं। हरिशंकर गाेयल व कुछ अन्य लोगों से बातचीत के बाद अतीत से जुड़े कुछ ऐसे रोचक प्रसंग सामने आए, जिनकी अधिक लोगों को जानकारी नहीं।
प्रस्तुत है लोगों की जुबानी तब की कहानी इस तरह हुई राजा से मुलाकात
अजमेर के सुप्रसिद्ध मेयो कालेज के प्रथम छात्र रहे राजा मंगल सिंह अलवर के पांचवे महाराज थे। सन्यास लेने के बाद 7 फरवरी 1891 को स्वामी विवेकानंद पहली बार अलवर आए थे। उन्होंने 31 मार्च 1891 तक यहां के अलग-अलग स्थानों पर प्रवास किया था। वर्तमान में जहां विवेकानंद चौक है, कभी वहां विशाल टीला था। स्वामी विवेकानंद इसी टीले पर बैठकर प्रवचन सुनाते थे। महाराज मंगल सिंह के दीवान कर्नल रामचंद्र भी यहां प्रवचन सुनने के लिए आया करते थे। ओजस्वी प्रवचनों की अहमियत दीवान के माध्यम से राजा तक पहुंची। इसके बाद राजा ने उन्हें शहर में आने के लिए आमंत्रित किया। मुलाकात के दौरान जब राजा ने स्वामी जी से मूर्ति पूजा में उनके विश्वास को लेकर सवाल किया तो, स्वामी जी ने झट से उनके ड्राइंग रूम में लगी मंगल सिंह के पिता राजा श्योदान सिंह की तस्वीर की और संकेत करके पूछा-क्या ये दिवंगत हो चुके हैं या जीवित हैं। जब दिवंगत होने का जवाब मिला तब स्वामी जी ने कहा कि फिर आपने यह तस्वीर क्यों लगा रखी है? क्या इस तस्वीर में आज भी आप राजा हो देखते हैं? संवाद आगे बढ़ा। निष्कर्ष यही निकला कि जब दिवंगत राजा की तस्वीर उनके होने का अहसास कराती है तो हमारे अराध्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी तो उनके होने का अहसास दिलाती है। इस तरह विवेकानंद ने अपनी तर्क शक्ति से राजा की जिज्ञासाएं शांत की। यहीं से अलवर के राज परिवार से स्वामी जी का रिश्ता प्रगाढ़ हुआ था।
अलवर पहुंचे थे स्वामी जी के 9 पत्र
वर्ष 1891 से 1897 के बीच स्वामी विवेकानंद ने यहां के अलग-अलग लोगों को कुल 9 पत्र लिखे थे। कुछ पत्र कर्नल रामचंद्र के वंशजों के पास थे, जबकि कुछ पत्र लाला गोबिंद सहाय को भेजे थे। लाला गोबिंद सहाय के पौत्र राजाराम मोहन गुप्ता के पास ये पत्र आज भी मौजूद हैं। हरिशंकर गोयल के अनुसार कर्नल के पौत्र बृजेंद्र सिंह से एक बार एक रिसर्च स्कॉलर इन पत्रों को मांगकर ले गए थे, मगर उन्होंने वापिस नहीं लौटाए।
राज ऋषि अभय समाज का योगदान
अतीत के जिस टीले पर आज जहां आज स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा स्थापित है, वह वर्तमान का सुप्रसिद्ध विवेकानंद चौक बन चुका है। राज ऋषि अभय समाज ने इस प्रतिमा का निर्माण करवाया था। यह समाज अपने पारसी शैली में किए जाने वाले भृतहरि नाटक मंचन व रामलीला मंचन के लिए सुप्रसिद्ध है।
विहिप की पहल पर बना स्मारक
विवेकानंद स्मारक का श्रेय विश्व हिंदू परिषद को दिया जाता है। जहां पर इस समय स्मारक बना हुआ है, वह कभी सीएमएचओ का घर हुआ करता था। उस समय सरकारी अस्पताल में सेवारत डा. गुरुचरण सिंह बंगाली थे। स्वामी विवेकानंद ने एक सप्ताह से अधिक समय उनके घर पर भी बिताई। बाद में एक दशक पूर्व….यहीं पर स्मारक का निर्माण किया गया। इसी परिसर में एक कांस्य प्रतिमा भी स्थापित करवाई गई। इस स्मारक का निर्माण वसुंधरा सरकार के समय यूआइटी (नगर सुधार न्यास) ने करवाया था। स्वामी जी जिस कमरे में ध्यान लगाते थे, उसे अब पनोरमा (डिजिटल दृश्य-श्रव्य सिस्टम) का रुप दिया हुआ है। इसका शिलान्यास 11 दिसंबर 2016 को शहर के तत्कालीन विधायक बनवारीलाल सिंघल व यूआइटी अध्यक्ष देवी सिंह भाटी ने किया था। बाद में 9 सितंबर 2018 को इसका उद्घाटन हुआ।
तीन बार अलवर आए स्वामी
स्वामी विवेकानंद के अलवर आगमन को लेकर अलग-अलग बातें सामने आ रही है। कोई उनका यहां आना एक बार मानते हैं तो कोई दो से तीन बार। हरिशंकर गोयल के अनुसार स्वामी जी अलवर शहर में पहली बार वर्ष 1891 में लगभग दो माह के लिए अाए थे। दूसरी बार वह खेतड़ी जाते समय अलवर जिले के बहरोड़ कस्बे से होकर निकले थे। शिकागो से लौटने के बाद स्वामी जी का खेतड़ी महाराज की ओर से स्वागत कार्यक्रम था। स्वामी जी दिल्ली से पहले रेलमार्ग से रेवाड़ी पहुंचे थे और यहां से बहरोड़ के रास्ते नारनौल होते हुए खेतड़ी पहुंचे थे। अलवर के अपने शुभचिंतकों को खेतड़ी ही बुलवाया हुआ था। दूसरा पक्ष यह है कि 7 फरवरी को पहली बार आगमन पर स्वामी जी तब के सरकारी अस्पताल के मुखिया बंगाली चिकित्सक डा. गुरुचरण लश्कर व गोविंद सहाय सहित कई लोगों के निवास पर कई-कई दिन रुके थे।
पंडित शंभूदयाल इंजीनियर व कुछ अन्य लोगों से भी उनकी घनिष्ठता थी। शिकागो से उन्होंने गोविंद सहाय को भी पत्र लिखे थे। स्वामी जी अक्सर बंगाली गीत गाते थे और उनके अर्थ समझाते थे। एक-एक बार अलवर व बहरोड़ आगमन के अलावा एक पक्ष ऐसा भी है जो मानता है कि शिकागो से लौटने के बाद भी स्वामी जी अलवर आए थे और राजमहल के मेहमान बने थे। अपने प्रवचनों में स्वामी जी अलवर में भी यही संदेश देते थे कि-उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको।
राजा जयसिंह ने दी आर्थिक मदद
वर्ष 1925 तक स्वामी विवेकानंद का साहित्य अंग्रेजी और बांग्ला भाषा में था। हिंदी में उनका साहित्य दुर्लभ था। इस कमी को दूर करने के लिएअलवर के छठे महाराज व राजा मंगल सिंह के बेटे राजा जयसिंह ने आर्थिक मदद दी थी, जिससे हिंदी में विवेकानंद के साहित्य की सुगम पहुंच सुनिश्चित हुई।
पत्र में छुपा है धर्म का मर्म
स्वामी विवेकानंद ने लाला गोविंद सहाय को जो पत्र लिखा था, वह आज भी प्रांसंगिक व प्रेरक है। इस पत्र में उन्होंने लिखा था कि ‘वत्स, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है। व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना और सच्चा बर्ताव करना इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल मात्र प्रभु-प्रभु की रट लगाता है वह नहीं बल्कि जो उस परमपिता की इच्छा के अनुसार कार्य करता है वही धार्मिक है। अलवर निवासी युवको, तुम जितने भी हो सभी योग्य हो। मैं आशा करता हूं कि तुम में से अनेक व्यक्ति अविलंब ही समाज के भूषण तथा जन्मभूमि के कल्याण के कारण बन सकेंगे।’