केंद्र सहित कई राज्यों की सत्ता पर काबिज पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व अगर किसी नगर निगम के चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दे, तो लोकतांत्रिक समाज के प्रचलित राजनीतिक मानकों के अनुसार इस पर सवाल उठेगा ही। लेकिन भारतीय जनता पार्टी का मौजूदा नेतृत्व अलग सोच के साथ अलग मिट्टी का बना हुआ है। एक दिसंबर को होने वाले जीएचएमसी यानी ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन चुनावों के लिए अपनी पूरी ताकत झोंककर भाजपा नेतृत्व ने साबित कर दिया है कि उसे आलोचनाओं की परवाह नहीं है, बल्कि वह अपने विस्तार की हर गुंजाइश में अपनी सफलता की कहानी लिखने के लिए तैयार है।
माना जाता है कि देश का सबसे प्रभावी और ज्यादा बजट वाला नगर निगम मुंबई का है। अपने चरम उत्कर्ष के दिनों में भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व ने कभी वहां का चुनाव जीतने के लिए वैसी घेराबंदी नहीं की, जैसी वह हैदराबाद में कर रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्या वजह है कि भाजपा ने निजाम की नगरी रहे हैदराबाद पर कब्जे के लिए अपने रथ के सारे घोड़े उतार दिए हैं।
केंद्र की सत्ता पर लगातार दो बार से काबिज भाजपा के लिए दक्षिण भारत के पांच में से चार राज्य अब तक पहेली बने हुए हैं। तेलंगाना भी उनमें से एक है। बेशक 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने यहां की 17 में से चार सीटों पर जीत दर्ज करके धमक बनाने की कोशिश की, लेकिन वह जानती है कि देशव्यापी समर्थन हासिल करने के लिए दक्षिण के राज्यों में भी उसके राजसूय यज्ञ के घोड़े का निर्बाध दौड़ना जरूरी है। भाजपा ने अपने पांव सुदूर उत्तर से लेकर पूरब, पश्चिम और उत्तर पूर्व तक फैला लिए हैं। सही मायने में वह अखिल भारतीय पार्टी बन चुकी है। इसके बावजूद दक्षिण से उसे अब तक वह समर्थन हासिल नहीं हो पाया है, जिसकी उसे दरकार है। यही वजह है कि पार्टी ने जीएचएमसी के स्थानीय चुनावों को दक्षिण में अपनी पैठ का जरिया बनाने की कोशिश की है। पार्टी को लगता है कि अगर उसने निजाम के किले पर कब्जा कर लिया तो दक्षिण के बाकी दरवाजे खोलना उसके लिए आसान हो जाएगा।
तेलंगाना से ही थे भाजपा के पहले सांसद
यहां याद कर लेना जरूरी है कि तेलंगाना की धरती ने भाजपा का साथ तब दिया था, जब इंदिरा लहर में भाजपा को कहीं समर्थन नहीं मिला था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुए आम चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में ऐसी जन सहानुभूति की बयार बही कि भाजपा का तकरीबन सफाया ही हो गया था। पार्टी के कई दिग्गज नेता भी उस चुनाव में हार गए। लेकिन उस कांग्रेस लहर में भी भाजपा पर दो जगह की जनता ने भरोसा जताया था। एक सीट थी गुजरात की मेहसाणा, जहां से एके पटेल ने जीत हासिल की थी, जबकि दूसरी तेलंगाना की हनमकोंडा सीट थी, जहां से चंदूपाटला जंगा रेड्डी ने जीत हासिल की थी। दरअसल जंगा रेड्डी पहले अध्यापक हुआ करते थे। फिर सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हुए थे, इसके बाद राजनीति में आ गए। रेड्डी शुरूआत से ही तेलंगाना सत्याग्रह आंदोलनों में भाग लेते रहे। यहां तक कि भाजपा की ओर से केरल तक के आंदोलनों में जाकर विरोध प्रदर्शनों में शामिल होते रहे। रेड्डी ने 1970 में बांग्लादेश को अलग देश बनाने के समर्थन में दिल्ली में हुए आंदोलन में हिस्सा लिया था, जिसमें उनकी गिरफ्तारी भी हुई थी।
ओवैसी के खिलाफ आक्रामक रुख
जीएचएमसी में 150 सीटें हैं। इनमें पिछली बार हुए चुनाव में राज्य की सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति को 99 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि 44 सीटों पर ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम को जीत मिली थी। भाजपा को महज चार सीटों से ही संतोष करना पड़ा था, जबकि यहां की सिकंदराबाद सीट से भाजपा के बंडारू दत्तात्रेय सांसद और केंद्र में मंत्री रहे। यह गौर करने की बात है कि भाजपा के निशाने पर तेलंगाना राष्ट्र समिति के बजाय ओवैसी की एआइएमआइएम है। भारतीय जनता पार्टी के तेलंगाना राज्य अध्यक्ष ने यहां तक कहा है कि अगर जीएचएमसी पर भाजपा का कब्जा हुआ तो पुराने हैदराबाद में सर्जकिल स्ट्राइक की जाएगी। पुराने हैदराबाद इलाके पर ओवैसी का प्रभाव माना जाता है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि ओवैसी पर हमलावार रुख के जरिये भारतीय जनता पार्टी हैदराबाद में न केवल अपना बड़ा वोट बैंक स्थापित करने की कोशिश में है, बल्कि वह हिंदुत्व के स्थापित एजेंडे के जरिये ही दक्षिण के दरवाजे पर दस्तक देने की कोशिश में है। पार्टी इस तरह से ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर रही हिंदू आबादी को भी संतुष्ट करने की कोशिश करती नजर आ रही है।
आजादी के बाद हिंदू प्रजा की बहुलता वाली हैदराबाद रियासत के नवाब ने पाकिस्तान में मिलने की कोशिश की थी। उनके रजाकारों ने हिंदू जनता पर अत्याचार भी किया था। तब भी हिंदू जनता भारत में विलय के पक्ष में सड़कों पर उतर आई थी। उसके बाद का इतिहास सबको पता है। कश्मीर के लिए निर्धारित संविधान से अनुच्छेद 370 को खत्म करके भाजपा देश की अखंडता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का संदेश पहले ही दे चुकी है। हैदराबाद में भी उस संदेश को देने और उस पर आगे बढ़ने की वह कोशिश कर रही है। इसमें ओवैसी की मुस्लिमपरस्त राजनीति पर हमला सहयोगी हो सकती है। इसलिए ही उसके निशाने पर ओवैसी है। शायद यही वजह है कि भाजपा के नेता यह कहते नहीं थक रहे कि ओवैसी को दिया गया हर वोट भारत के खिलाफ है। चूंकि तेलंगाना विधानसभा में ओवैसी की पार्टी का टीआरएस से गठबंधन है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि ओवैसी पर भाजपा के हमले का असर टीआरएस पर नहीं पड़ रहा।
हैदराबाद की नब्ज पर ओवैसी परिवार की पकड़
ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम पर भले राज्य में सत्तारूढ़ टीआरएस का कब्जा है, पर ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन यानी एआइएमआइएम का सिक्का यहां खूब चलता है। इस पार्टी का गठन 1928 में हुआ था। इसका पूर्ववर्ती नाम मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन था। इसके गठन में हैदराबाद के नवाब महमूद नवाज खान का हाथ था। वर्ष 1948 तक इस संगठन का उद्देश्य हैदराबाद को अलग मुस्लिम राज्य बनाए रखना था। इसके संस्थापकों में हैदराबाद के नेता सैयद कासिम रिजवी भी शामिल थे, जो हैदराबाद के नवाब के सहयोगी रजाकार नाम के हथियारबंद हिंसक संगठन के प्रमुख थे। 1948 में जब सरदार वल्लभभाई पटेल ने हैदराबाद रियासत का भारत में विलय किया तो इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था। एआइएमआइएम में ऑल इंडिया शब्दों को 1957 में जोड़ा गया और पार्टी ने अपना उद्देश्य बदल लिया। इसके बाद इस पार्टी ने अपने संविधान में बदलाव किया। इस पार्टी की कमान उस दौर में हैदराबाद के मशहूर वकील अब्दुल वहाद ओवैसी के हाथ आ गई। उनके बाद उनके बेटे सलाहुद्दीन ओवैसी इसके अध्यक्ष बने। उनके ही बेटे हैं असदुद्दीन ओवैसी और अकबरूद्दीन ओवैसी। असदुद्दीन इन दिनों इस पार्टी के प्रमुख हैं, जबकि उनके छोटे भाई अकबरूद्दीन विधानसभा में इस पार्टी के नेता हैं। यहां बताना जरूरी है कि 2019 के विधानसभा चुनावों में इस पार्टी ने सात सीटें जीती थीं। भले ही इस पार्टी ने ऑल इंडिया शब्द को जोड़ते हुए अपना उद्देश्य बदल लिया, पर जैसी भाषा असदुद्दीन और उनके भाई बोलते हैं, उससे साफ लगता है कि उन्होंने भले ही मुस्लिम राजव्यवस्था की बात को पीछे करके धर्मनिरपेक्षता का दामन थाम लिया है, परंतु उनकी राय बहुत बदली नहीं है। वे अब भी मुसलमानों को अपना कोर वोट बैंक मानते हैं और उन्हें प्रभावित करने के लिए निरंतर भड़काऊ भाषण देते रहते हैं।
बेशक असदुद्दीन ओवैसी की छवि कट्टर मुस्लिम नेता की है, लेकिन अतीत में ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के लिए एमआइएम तीन हिंदू मेयर-के. प्रकाश राव, ए. सत्यनारायण और आलमपल्ली पोचैया दे चुकी है। ओवैसी की पार्टी आंध्र प्रदेश की राजेंद्र नगर सीट से हिंदू उम्मीदवार ए. मुरलीधर रेड्डी को भी चुनाव में उतार चुकी है। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि पार्टी को मुस्लिम वर्ग में पूरी तरह स्वीकार्यता हासिल नहीं, जिसके कारण उसे दूसरों वर्गो पर भी निर्भर रहना होता है। असदुद्दीन के पिता सलाउद्दीन ओवैसी पहली बार 1984 में हैदराबाद से सांसद बने। तब से इस सीट पर ओवैसी परिवार का ही कब्जा है। ओवैसी की पार्टी के तेलंगाना में सात विधायक हैं। पार्टी ने हालिया बिहार विधानसभा चुनावों में भी पांच सीटों पर जीत हासिल की है। यानी ओवैसी की पार्टी हैदराबाद से कई राज्यों को पार करते हुए बिहार के पूर्वी इलाकों तक अपनी पैठ बना रही है। हालांकि इस इलाके में मुस्लिम आबादी खासी अधिक है। अब ओवैसी की नजर बंगाल पर है, जहां भाजपा भी पूरे दमखम से चुनाव लड़ेगी।