आजादी के समय भारत की 36.1 करोड़ आबादी आज 138 करोड़ हो चुकी है। 2050 तक इसके 164 करोड़ हो जाने के अनुमान हैं। जब आबादी शहरीकरण और आर्थिक गतिविधियों बढ़ती हैं तो उसी अनुपात में जल की जरूरत भी बढ़ती है।
दशकों से भारत का जल प्रबंधन गैर टिकाऊ रास्ते पर है। जिसके चलते पेयजल, कुकिंग और साफ-सफाई जैसी मूल इंसानी जरूरतों के लिए ही नहीं, औद्योगिक, व्यावसायिक, कृषि और पर्यावरणीय उद्देश्यों के लिए भी उपयुक्त गुणवत्ता वाला जल उपलब्ध नहीं हो रहा है। देश का कोई भी एक शहरी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां सीधे सार्वजनिक आपूर्ति वाले पानी का इस्तेमाल किया जा सके। आजादी के समय भारत की 36.1 करोड़ आबादी आज 138 करोड़ हो चुकी है। 2050 तक इसके 164 करोड़ हो जाने के अनुमान हैं। जिस गति से यहां आबादी में तेज वृद्धि हुई वैसे ही आर्थिक गतिविधियों और शहरीकरण में इजाफे का अनुपात बढ़ा। सभी इंसानी गतिविधियों के लिए पानी की दरकार है। जब आबादी, शहरीकरण और आर्थिक गतिविधियों बढ़ती हैं तो उसी अनुपात में जल की जरूरत भी बढ़ती है। विडंबना यह हुई कि जल प्रबंधन के अभाव में इसकी गुणवत्ता तेजी से गिरती गई। लगातार अपने खराब जल प्रबंधन के चलते देश की वर्तमान पीढ़ी जल संकट के सबसे खराब दौर से गुजर रही है।
कम होते पानी और खराब होती इसकी गुणवत्ता के प्रति उदासीनता ने यह तस्वीर बना दी है कि देश के 10 फीसद से कम घरेलू और औद्योगिक पानी का ही शोधन संभव हो पा रहा है। अधिकांश जमीन पर मौजूद और भूजल स्नोत प्रदूषित हो चुके हैं। सिंगापुर जैसे देश लोगों को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने के लिए लगातार 352 जल गुणवत्ता वाले मानकों की निगरानी करते हैं। दुर्भाग्य से भारत में कुछ ही जगह ऐसी हैं जहां सिर्फ 25 मानकों पर गुणवत्ता की निगरानी की जा रही है। चीन जैसे अन्य विकासशील देश अपने पानी के 112 गुणवत्ता मानकों की निगरानी करते हैं। देश की नदियों को साफ करने के लिए करोड़ों रुपये बर्बाद हो चुके हैं लेकिन वे पहले से ज्यादा प्रदूषित हैं। भूजल की गुणवत्ता सतह पर मौजूद जल से अधिक खराब हो चुकी है। इस पूरे परिदृश्य में आइए जानते हैं कि नेशनल वाटर मिशन का ताजा अभियान ‘कैच द रेन: ह्वेन इट फाल्स, ह्वेयर इट फाल्स’ देश की जल समस्या को दूर करने में कितना प्रभावी साबित होगा। मानसून सीजन के चार महीने यहां बरसात होती है। जिसका पैटर्न अब असामान्य हो चुका है। देश की राजधानी दिल्ली को ही ले लीजिए। एक साल में यहां 40 बारिश के दिन होते हैं।
यहां की कुल सालाना बारिश 80 घंटों में हो जाती है। इसका मतलब है कि भारी मात्र में बारिश बहुत कम समय में हो जाती है। जिससे इसका संग्रह और भंडारण तकनीकी रूप से बहुत दुष्कर है। चेरापूंजी सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान है। 10,820 मिमी सालाना बारिश यहां जून से अगस्त के बीच हो जाती है। ज्यादातर बारिश महज 120 घंटे में होती है। अत्यधिक मात्र में होने वाली इस बारिश का भंडारण बहुत मुश्किल है। यही वजह है कि भारत के सर्वाधिक बारिश वाले स्थान सूखे मौसम में गंभीर जल संकट से जूझने लगते हैं। मौसमी बारिश को संग्रह करने में वर्षाजल संग्रह प्रणाली को यही दिक्कत आती है कि 70 से 120 घंटों में होने वाली बारिश को कैसे एकत्र किया जाए जिससे बाकी के महीनों में उस पानी का इस्तेमाल किया जा सके।
वर्षाजल प्रणाली के साथ इसके अलावा दो अतिरिक्त गंभीर दिक्कतें हैं। गरीब इसके शायद ही कभी सीधे लाभार्थी हों। शहरों में गरीब परिवारों के पास वैसी छत या जमीन नहीं है, जहां वे बारिश के पानी को एकत्र कर सकें। ग्रामीण इलाकों में भी लोगों के पास जमीनों की जोत इतनी छोटी है कि बारिश के पानी को एकत्र करने में असमर्थ हैं। इस योजना के तहत जिलाध्यक्षों, आइआइएम प्रमुखों, आइआइटी, विश्वविद्यालयों, रेलवे, एयरपोर्ट अथॉरिटी और सार्वजनिक उपक्रमों आदि के पास अकूत जमीन हैं। इन संस्थानों के बारिश के पानी के जमा करने को कहा गया है। न तो उनके पास इस काम के लिए बजट होता है और न ही उनके पास इस अतिरिक्त काम की विशेषज्ञता है। ऐसे में कैच द रेन अभियान का मूल उद्देश्य अवास्तविक सा दिखता है।
इसमें कहा गया है कि बिल्कुल भी नहीं या सीमित जल आपके अहाते से बाहर बहकर जाए। भारी मानसूनी बारिश के दौरान सामान्य रूप से इसका क्रियान्वयन व्यावहारिक नहीं लगता है। यदि भारत अपनी जल सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहता है तो नेशनल वाटर मिशन को समग्र रूप से वर्षाजल प्रबंधन पर ध्यान देना होगा। सिर्फ बारिश के पानी के संग्रह से काम नहीं चलेगा। वर्षाजल प्रबंधन के तहत बारिश के रूप में आने वाली बूंदों को सभी उपायों से रोकने की जहमत करनी होगी। बड़े, छोटे चेक डैम बनाकर भूजल स्तर उठाना होगा। जलवायु परिवर्तन के चलते लंबे सूखे से निपटने के लिए देश को इतनी मात्र में बारिश के पानी का भंडारण करना होगा जिससे 3-6 साल के लिए सूखे से लड़ा जा सके। इसके लिए अलग-अलग जलवायु, संस्थागत, सामाजिक और आर्थिक दशाओं के तहत बारिश के पानी को जमा करने के लिए अलग-अलग तरीकों को आजमाया जाना चाहिए जिससे राज्य यह जान सकें कि उनके लिए कौन सा संयोग मुफीद साबित होगा।
लगता है कि हर जिले में रेन सेंटर बनाने की युक्ति करके भारत चीन के पदचिन्हों पर चलना चाहता है। चीन इसी संकल्पना के तहत पिछले बीस साल से रेन गार्डेन, स्पांज सिटीज और रिवर चीफ बनाता आ रहा है। इस प्रक्रियाओं से जुड़ी चुनौतियों और मौकों का गंभीर आकलन किया जाना अपरिहार्य है। इसके बाद भारत की विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक और संस्थागत दशाओं के तहत इनमें उल्लेखनीय बदलाव की जरूरत है। बिना बजट और विशेषज्ञता के इन रेन सेंटरों का फलाफल निष्प्रभावी रहने के करीब है। 1987 में जल संसाधन मंत्रलय ने पहली राष्ट्रीय जल नीति बनाई। अब चौथी नीति तैयार की जा रही है। 34 साल में इन नीतियों का देश के जल प्रबंधन पर बहुत असर नहीं दिखा। ये अच्छे दस्तावेज जरूर दिखे, लेकिन देश की वास्तविक समस्या और उसके समाधान से इनका दूर-दूर तक नाता नहीं रहा। कैच द रेन एक और फील गुड दस्तावेज न साबित हो, इससे बचने की जरूरत है।
यदि भारत अपनी जल सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहता है तो नेशनल वाटर मिशन को समग्र रूप से व्यापक वर्षाजल प्रबंधन पर ध्यान देना होगा। सिर्फ वर्षा जल संग्रह प्रणाली से काम नहीं चलेगा। इसे हर जगह सभी रूपों में पानी को पकड़ना होगा।
- (असित के विस्वास, निदेशक, वाटर मैनेजमेंट इंटरनेशनल, प्राइवेट लिमिटेड, सिंगापुर)
- (प्रो सेसिला टोरटाजादा, स्कूल ऑफ इंटरडिसिप्लिनरी स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ ग्लासगो, यूके)