बात छोटी थी, लेकिन गौर करने वाली। चर्चा हुई, समाधान के सुझाव आए। अमल हुआ। नतीजा, दो साल बाद आज गोरखपुर (उप्र) जंगल कौड़िया और कैंपियरगंज ब्लाक के दर्जनभर गांवों में सब्जी की खेती करने वाली महिलाओं को निराई, गोड़ाई और मिट्टी चढ़ाई का काम झुककर करने से मुक्ति मिल गई है। वह सिर उठाकर काम कर रही हैं। इस समाधान का नाम है साइकिल हल और इसे देखकर सभी के मुंह से निकलता है- ‘वाह! क्या हल निकाला है।’
जंगल कौड़िया और कैंपियरगंज ब्लाक के कई गांवों में किसान सब्जी की उन्नत खेती करते हैं। चूंकि खेत छोटे हैं, इसलिए बैल वाले हल और ट्रैक्टर का हमेशा इस्तेमाल संभव नहीं था। निराई, गोड़ाई और मिट्टी चढ़ाई का काम कुदाल, फावड़ा या खुरपी से करना पड़ता था। समय और श्रम लगने के साथ लगातार झुककर काम करने से स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें भी आने लगी थीं। दो साल पहले किसानों के लिए काम करने वाली संस्था गोरखपुर इन्वायरमेंटल एक्शन ग्रुप ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रलय की मदद से जंगल कौड़िया के पचगांवा में किसान गोष्ठी की तो महिला किसानों ने इसे साझा किया। तब किसान हरिश्चंद्र ने साइकिल हल की चर्चा की, जिसे उन्होंने बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले में देखा था।
विचार उपयोगी लगने पर ग्रुप ने हल बनाने में मदद की। हरिश्चंद्र की अगुआई में मेघनाथ, रामनिवास, शांति देवी, सुभावती, बीरबल आदि ने लोहा कारीगर चौमुखा निवासी ओम और धर्मपुर निवासी मुन्नीलाल की मदद ली। कई प्रयोग के बाद तीन फाल वाला साइकिल हल तैयार किया गया। हल बनाने में केवल 2,400 रुपये लगे, लेकिन किसानों को सुविधा अधिक हुई। अब 13 गांवों में 400 से अधिक किसान इस हल का इस्तेमाल कर रहे हैं। किसान हरिश्चंद्र का कहना है कि इससे प्रति एकड़ 2,100 रुपये बच रहे। जो किसान हल नहीं बनवा पा रहे, ग्रुप उन्हें दस रुपये प्रतिदिन के मामूली किराये पर उपलब्ध करा रहा है।
ऐसा है साइकिल हल
साइकिल के एक पहिए में तीन फाल वाले पतले हल को नट-बोल्ट से फिक्स किया गया है। दो फाल आठ-आठ सेमी और एक 5.5 सेमी लंबा है। तीनों की एक दूसरे से दूरी 15 सेमी है। साइकिल के चिमटे में दो हत्थे लगाकर उसे धकेलकर चलाने लायक बनाया गया है। स्त्री हो या पुरुष, इसे बिना झुके आसानी से चला सकते हैं।