सरकार की विनिवेश रणनीति

हालांकि एलआईसी और बैंकों के विनिवेश के ऐलान के बाद विरोध की आवाजें भी उठनी शुरू हुई हैं और तमाम लोगों का कहना है कि सरकार का ये कदम ठीक नहीं है. यहां तक कि सरकार के पक्ष में खड़े रहने वाले संगठन भी इससे ज़्यादा खुश नहीं हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ ने बजट 2021 पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा है, “फिस्कल डेफिसिट से निबटने, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप जैसी चीजों के लिए दो सरकारी बैंकों और एक जनरल इंश्योरेंस कंपनी में हिस्सेदारी बेचने, एलआईसी के आईपीओ लाने, नीति आयोग से विनिवेश के लिए कंपनियों की लिस्ट बनाने के लिए कहने, गै़र-रणनीतिक और रणनीतिक सेक्टरों में विनिवेश को मंजूरी देने जैसे आक्रामक विनिवेश कार्यक्रम आत्मनिर्भर भारत के आकर्षण और बजट के कुछ अच्छे प्रस्तावों के फायदों को कम करेंगे.”

पिछले एक साल के दौरान कोविड-19 महामारी में जिस तरह से सरकारी अस्पतालों और कंपनियों ने आगे बढ़कर आम लोगों की मदद की है उससे यह सवाल पैदा हो रहे हैं कि अगर सरकारी कंपनियां नहीं होंगी तो किसी भी संकट के वक्त क्या निजी सेक्टर पर पूरी तरह से भरोसा किया जा सकेगा.

सरकार की विनिवेश रणनीति में मोटे तौर पर चार चीज़ें शामिल हैं. इनमें पब्लिक सेक्टर की यूनिट्स को निजी सेक्टर को बेचना, नॉन-फाइनेंशियल सेंट्रल पब्लिक सेक्टर एंटरप्राइजे़ज़ का कंसॉलिडेशन, केंद्रीय उद्यमों में स्टेक सेल और ऐसी सरकारी कंपनियों में भी हिस्सा कम करना जहां पर पहले से ही सरकार की हिस्सेदारी 51 फ़ीसद से कम पर है, आते हैं.

देश में 300 से ज़्यादा सरकारी सेक्टर की कंपनियां हैं. अक्सर तर्क दिया जाता है कि सरकार का काम कारोबार चलाना नहीं है और इस वजह से सरकार को इन कंपनियों को बेच देना चाहिए.

खबरों के मुताबिक़, सरकार इन कंपनियों की संख्या को घटाकर क़रीब दो दर्जन पर लाना चाहती है.

सरकार ने परमाणु ऊर्जा, स्पेस, डिफेंस, ट्रांसपोर्ट, टेलीकम्युनिकेशंस, पावर, पेट्रोलियम, कोयला और दूसरे मिनरल्स और बैंकिंग, बीमा और वित्तीय सेवाओं को रणनीतिक सेक्टर माना है. सरकार की नीति है कि इन सेक्टरों को छोड़कर बाकी सभी सेक्टरों में मौजूद सरकारी कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी को बेच दिया जाए.

विनिवेश और निजीकरण में क्या फर्क है?

वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं, “विनिवेश में पब्लिक सेक्टर की कंपनी में सरकार कुछ हिस्सा बेचती है, लेकिन कंपनी पर सरकार का ही नियंत्रण रहता है. दूसरी ओर, निजीकरण में सरकार मैजॉरिटी स्टेक प्राइवेट कंपनियों को बेच दिया जाता है और इस तरह से प्रबंधन निजी कंपनी के हाथ चला जाता है.”

वो समझाते हैं कि इस तरह की स्टेक सेल को स्ट्रैटेजिक सेल भी कहा जाता है. डिसइनवेस्टमेंट में सरकार कंट्रोल निजी कंपनी को दे या न दे ये उस पर निर्भर करता है, लेकिन निजीकरण में कंपनी का मैनेजमेंट प्राइवेट कंपनी के हाथ में चला जाता है.

डिपार्टमेंट ऑफ पब्लिक इनवेस्टमेंट एंड पब्लिक एसेट मैनेजमेंट की वेबसाइट पर कहा गया है- 5 नवंबर 2009 को सरकार ने मुनाफे में चल रही सरकारी कंपनियों में विनिवेश का निम्नलिखित एक्शन प्लान बनाया हैः

पहले से लिस्टेड प्रॉफ़िटेबल सीपीएसई (सेंट्रल पब्लिक सेक्टर एंटरप्राइजेज) (जो 10 फीसदी अनिवार्य शेयरहोल्डिंग को पूरा नहीं करती हैं, जिसे संशोधित करके 25 फीसदी कर दिया गया है) में सरकार ऑफऱ फ़ॉर सेल (ओएफएस) लाकर या या सीपीएसई नए शेयर जारी करके या दोनों के कॉम्बिनेशन से विनिवेश किया जाएगा.

विनिवेश की जरूरत क्यों पड़ी?

विनिवेश के पीछे कुछ वजहें हैं. भारत में विनिवेश का एक मकसद अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे और सरकार के ऊपर वित्तीय बोझ बने हुए सार्वजनिक उपक्रमों (बीमारू कंपनियों) से पीछा छुड़ाना और सरकारी खजाने की सेहत को मजबूत बनाना रहा है.

कंपनियों में हिस्सेदारी बेचकर होने वाली कमाई का इस्तेमाल आम लोगों को सुविधाएं देने में करना भी सरकार का एक मकसद है. इसके अलावा, देश में बड़े पैमाने पर इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स की फंडिंग करने के लिए पैसे जुटाना भी विनिवेश का एक मकसद रहा है.

बढ़ते फिस्कल डेफ़िसिट (राजकोषीय घाटे) को कम करने के लिए भी सरकार को विनिवेश की जरूरत पड़ती है. साथ ही सरकार इस पूंजी का इस्तेमाल कर्ज़ कम करने के लिए भी करती है.

उदारीकरण के साथ पड़ी थी विनिवेश की नींव

साल 1991-92 में देश में उदारीकरण की शुरुआत के साथ ही विनिवेश का रास्ता भी खोल दिया गया. तब सरकारी सेक्टर की 31 कंपनियों में विनिवेश किया गया और 3,038 करोड़ रुपये सरकारी ख़जाने में आए.

अगस्त 1996 में एक विनिवेश आयोग का गठन किया गया. इसकी कमान जीवी रामकृष्णा को सौंपी गई. आयोग का काम सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में चरणबद्ध तरीके से हिस्सेदारी बेचने के लिए सलाह देना और इस प्रक्रिया की निगरानी करना था.

विनिवेश आयोग ने 57 सरकारी कंपनियों के निजीकरण की सिफारिश की. हालांकि, वाजपेयी सरकार के जाने के साथ ही मई 2004 में इस आयोग को खत्म कर दिया गया.

वाजपेयी सरकार के वक्त तेजी से हुए विनिवेश के फै़सले

दिसंबर 1999 में विनिवेश विभाग का गठन एक अलग विभाग के तौर पर किया गया. बाद में इसे 2001 में विनिवेश मंत्रालय का नाम दिया गया. मई 2004 से विनिवेश मंत्रायल को वित्त मंत्रालय के अधीन ला दिया गया.

1991-92 से लेकर 2000-01 तक के लिए सरकार ने मोटे तौर पर 54,300 करोड़ रुपये विनिवेश के जरिए जुटाने का लक्ष्य रखा था, इसके उलट सरकार इससे आधी से भी कम यानी 20,078.62 करोड़ रुपये ही जुटा सकी.

इन 10 वर्षों में सरकार केवल तीन वर्ष ही विनिवेश के लिए तय किए गए सालाना टारगेट को हासिल कर पाने में सफल रही.

इस बुरे प्रदर्शन की कई वजहें भी रहीं. इनमें अनुकूल मार्केट स्थितियां न होना, सरकार की ऑफ़र की जाने वाली कीमत को निजी निवेशकों द्वारा आकर्षक न पाया जाना, वैल्यूएशन प्रक्रिया को लेकर तमाम तरह के विरोध, विनिवेश को लेकर किसी स्पष्ट नीति का न होना, कर्मचारी संगठनों और ट्रेड यूनियनों के जबरदस्त विरोध, विनिवेश की प्रक्रिया का पारदर्शी न होना और राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव शामिल रहा.

इस दौरान हुए विनिवेश में मूल रूप से सरकारी कंपनियों में मामूली हिस्सेदारी की बिक्री हुई.

2001 से 2004 के बीच सबसे बड़ी संख्या में विनिवेश हुए. इस अवधि में सरकार ने 38,500 करोड़ रुपये के विनिवेश का लक्ष्य रखा था. सरकार 21,163 करोड़ रुपये हासिल करने में सफल रही और इसे अच्छा प्रदर्शन माना जा सकता है.

अगले पांच साल में विनिवेश की रफ्तार में फिर से सुस्ती आई और सरकार इस मद से महज 8515.93 करोड़ रुपये ही कमा पाई.

2009-11 के बीच विनिवेश में रफ्तार आई. लेकिन, 2011 के बाद यह फिर सुस्त पड़ गई. 2011-12 में सरकार ने 40,000 करोड़ रुपये का टारगेट रखा, लेकिन वह 14,000 करोड़ रुपये ही हासिल कर पाई.

हालांकि, इसके बाद के वर्षों में विनिवेश से जुटाई जाने वाली पूंजी में इजाफा हुआ और कुछ दफा सरकार अपने टारगेट से आगे भी निकलने में सफल रही.

आपत्तियां और विवाद

विनिवेश के पक्ष और विरोध में लंबे वक्त से बहस चली है. सरकारी कंपनियों को बेचने का विरोध करने वाले तबके का मानना है कि भारत जैसे ग़रीब देश में सरकारी कंपनियां लोगों की मदद करने के लिए बेहद ज़रूरी हैं. दूसरी ओर, विनिवेश के समर्थकों का मानना है कि सरकार को पूरा फोकस सरकार चलाने पर लगाना चाहिए न कि कारोबार चलाने पर.

प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि भारत जैसे ग़रीब देश में पब्लिक सेक्टर की कंपनियां चलाना जरूरी है. वे कहते हैं कि जिसे सेक्टर में भी निजी कंपनियां आ जाती हैं तो वे पब्लिक सेक्टर की कंपनियों के लिए दिक्कतें खड़ी करने लगते हैं. टेलीकॉम सेक्टर में ऐसा देखा गया है.

एलआईसी प्रॉफ़िटेबल है और सरकार इसका फ़ायदा हमेशा से उठाती आई है. सरकार को जब भी लगा उसने एलआईसी से मार्केट में दख़ल देने के लिए कहा क्योंकि एलआईसी कंपनियों में निवेश करती है.

एलआईसी, रेलवे, बैंकों और दूसरी अहम कंपनियों के निजीकरण पर सवाल उठाए जा रहे हैं.

प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं, “एलआईसी रिस्क के क्षेत्र में है और दूसरा यह लॉन्ग-टर्म कारोबार में है, ऐसे में इसे अगर निजी हाथों में देंगे तो रिस्क कैसे कवर होगा. एलआईसी सोशल यूज़ की कंपनी है. साथ ही देश में इंश्योरेंस कवर बेहद कम है और इंश्योरेंस को सब तक पहुंचाने के लिए इसे सस्ता रखने की जरूरत है. निजी कंपनियां ऐसा नहीं करेंगी.”

प्राइवेट सेक्टर यही कहता है कि सरकार का काम कंपनियां चलाना नहीं है. एम्स, मदर डेयरी जैसे सरकारी संस्थान बड़े स्तर पर आम लोगों के हित में काम करते हैं और इन संस्थानों की वजह से निजी कंपनियां अपनी मनमानी नहीं कर पाती हैं. लेकिन, अगर इन्हें हटा दिया जाएगा तो आम लोगों के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी.

प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि हमने कोविड-19 महामारी के वक्त भी देखा है कि संकट के वक्त पर सरकारी अस्पताल ही आम लोगों की मदद में काम आए हैं. निजी अस्पतालों में इलाज के नाम पर हुई लूट हम सबने देखी है.

वे कहते हैं कि इस महामारी ने यह साबित किया है कि क्राइसिस के वक्त पर सरकारी सेक्टर की कंपनियों की अहमियत कितनी बढ़ जाती है. ऐसे वक्त पर हम अपनी अहम कंपनियां बेचने में लगे हैं.

2014 में मोदी सरकार आने के बाद से क्या रही है विनिवेश की नीति?

दरअसल, विनिवेश का दौर 1991 में नई आर्थिक नीति के साथ ही शुरू हो गया था और उसके बाद भले ही सरकारें बदलती रहीं, लेकिन यह नीति लगातार जारी रही.

2014 में नई सरकार आने के बाद भी विनिवेश पर पहले जैसा ही फोकस बना रहा है.

प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को 1980 के दशक के बाद से ही ढंग से चलाना बंद कर दिया है. उद्योगपति चाहते नहीं थे कि सरकार कंपनियां चलाए. प्राइवेट सेक्टर वाले कभी नहीं चाहते कि सरकारी कंपनियां अच्छी तरह से काम करें.

विनिवेश का लक्ष्य

वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल के लिए 1.75 लाख करोड़ रुपये का विनिवेश लक्ष्य तय किया है.

2020-21 के लिए सरकार ने 2.1 लाख करोड़ रुपये का डिसइनवेस्टमेंट टारगेट रखा था. हालांकि, कोविड-19 महामारी के चलते सरकार केवल 19,499 करोड़ रुपये ही जुटा पाई है.

वित्त वर्ष 2014-15 के लिए सरकार ने 58,425 करोड़ रुपये का विनिवेश लक्ष्य रखा था, हालांकि, सरकार इस मद से 26,068 करोड़ रुपये ही जुटा पाई थी.

इसके अगले साल यानी 2015-16 में सरकार ने विनिवेश से 69,500 करोड़ रुपये हासिल करने का लक्ष्य बजट में रखा था. हालांकि, सरकार महज 23,997 करोड़ रुपये ही हासिल कर सकी.

2016-17 में सरकार 56,500 करोड़ रुपये का टारगेट रखा, जबकि वह 46,247 करोड़ रुपये ही हासिल कर सकी.

2017-18 में सरकार ने विनिवेश से 1 लाख करोड़ रुपये हासिल करने का लक्ष्य रखा था, जबकि सरकार 1 लाख 56 करोड़ रुपये हासिल कर पाने में कामयाब रही थी.

वित्त वर्ष 2018-19 के लिए सरकार ने 80,000 करोड़ रुपये विनिवेश के जरिए हासिल करने का लक्ष्य रखा था, जबकि सरकार इस लक्ष्य से आगे निकलकर 85,000 करोड़ रुपये हासिल करने में सफल रही.