अभी तक हमारा समाज मानता है कि पुत्र के बिना गति नहीं…क्योंकि परम्पराओं के अनुसार, सिर्फ बेटे को ही चिता में मुखाग्नि देने का हक है, बेटियों को नही। साथ ही न तो बेटियां अर्थी को कंधा नही दे सकती और न ही पिंड दान कर सकती हैं। लेकिन परिवर्तन के इस दौर में अब बेटियां भी अंतिम संस्कार में हिस्सा ले सकेंगी और अर्थी को कन्धा दे सकेंगी।
दरअसल, इस नए सामजिक परिवर्तन की शुरुआत सूबे के वेरावल जिले के सूत्रापाड़ा गांव के जाला इलाके में शुरू हुई है। जहां जाला इलाके में रहने वाले मान सिंह भाई की पत्नी जसि बहेन का निधन हो गया था। जसि बहेन अपने जीवन में खुद एक स्वयं सैनिक दल के साथ जुड़ी हुई थी। जब गाँव में उनके निधन की ख़बर सुनी गई तो गाँव की 150 से ज्यादा महिलाएं इकठ्ठा हो गई।
इसके बाद सारी महिलाओं ने श्मशान यात्रा में भी शामिल होने का फैसला किया। महिलाओं ने न सिर्फ जसि बहेन की अर्थी को कंधा दिया, बल्कि उनकी चिता को सभी ने मिलकर मुखाग्नि भी दी। इसके बाद सभी ने उनके मृत शरीर को अंतिम सलामी दी।
उल्लेखनीय है कि, भारतीय संस्कृति में घर के किसी सदस्य की मौत पर घर का बेटा या पति को ही मुखाग्नि देने की परपरा है। लेकिन इन महिलाओं ने नारी को अबला करार देने वाली इस परंपरा को तोड़कर अनोखी मिशाल पेश की है।