अपने व्यक्तित्व और कृतित्व पर स्वयं कलम चलाना खतरे से खाली नहीं होता है, क्योंकि इसके लिए जिस निरपेक्षता की जरूरत होती है, उसका आमतौर पर अभाव पाया जाता है। खासकर एक ऐसे व्यक्ति के लिए, जो शीर्ष सत्ता के बहुत करीब रहा हो। यही वजह है कि जब इंदिरा गांधी के सचिव रहे पीएन हक्सर के पास एक प्रकाशक उनकी जीवनी पर पुस्तक का प्रस्ताव लेकर आया तो उन्होंने उसे यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि इसके लिए जिस शांत दार्शनिक निर्लिप्तता की जरूरत होती है, उसे प्राप्त करना एक ऐसे व्यक्ति के लिए काफी कठिन है, जो सत्ता के बहुत नजदीक रहा हो। इसके बावजूद पूर्व सीबीआइ निदेशक आरके राघवन ने आत्मकथा लिखने का साहस किया है तो इसकी ठोस वजहें होंगी।

भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) के एक अफसर के रूप में तमिलनाडु से अपना करियर शुरू करने वाले राघव कृष्णस्वामी राघवन (आरके राघवन) ने उन ऊंचाइयों को छुआ, जिसे हासिल करना हर अधिकारी का सपना होता है। तीन दशक लंबे करियर में वे कतिपय ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं के गवाह बने, जिनकी वजह से देशकाल पर गहरा और दीर्घकालिक असर पड़ा। वे 1991 में राजीव गांधी की हत्या के समय न सिर्फ उनके सुरक्षा अधिकारी के रूप में वहां उपस्थित थे, बल्कि उसकी जांच की अगुआई भी की।

उन्होंने भारतीय राजनीति में भूचाल लाने वाले बोफोर्स घोटाले, खेल की दुनिया में तहलका मचाने वाले मैच फिक्सिंग मामले और 2002 के गुजरात दंगे की जांच की निगरानी की। बोफोर्स और मैच फिक्सिंग ने हमारे समय के कई नायकों को मटियामेट कर दिया, वहीं गुजरात दंगे और उसके बाद के घटनाक्रमों ने अप्रत्यक्ष रूप से देश के अब तक के और संभवत: भविष्य के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री के आगमन का मार्ग प्रशस्त किया। अपनी आत्मकथा की प्रस्तावना में ही राघवन ने स्पष्ट कर दिया है कि अगर उन्होंने अपने जीवन में घटी घटनाओं को कलमबद्ध नहीं किया तो भावी पीढ़ी उन्हें माफ नहीं करेगी।

हालांकि इसे लिखने से पहले उनके अंदर थोड़ा संशय था कि क्या वे उन लोगों का ईमानदारी से बचाव कर पाएंगे, जिन्होंने उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया या कहीं वे घटनाओं का ब्योरा पेश करते समय गोपनीयता कानून का उल्लंघन तो नहीं कर देंगे। हालांकि इसे पढ़ते समय पाठकों को यह बखूबी अनुभव होगा कि राघवन इन कसौटियों पर खरे उतरे हैं। पुस्तक की शुरुआत 1991 में हुई उस आतंकी घटना से है, जिसने हमसे पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को छीन लिया था। लेखक का मानना है कि सुरक्षा घेरे को नजरअंदाज कर आम लोगों से मिलने-जुलने की राजीव गांधी की आदत के कारण सुरक्षा अधिकारी परेशान रहते थे। दूसरे अध्याय से राघवन की जीवनी शुरू होती है। फिर क्रमानुसार जन्मस्थली से कर्मस्थली की यात्र, खुफिया ब्यूरो के प्रमुख के रूप में उनके कार्यकाल, सीबीआइ निदेशक के रूप में उपलब्धियों, साइप्रस में राजदूत के रूप में अनुभवों का ब्योरा दिया गया है।

जीवन के 80वें वर्ष में प्रवेश के बाद भी उन्हें इस बात का अफसोस है कि वे बहुत जल्द गुस्सा हो जाते हैं। खासकर जब किसी पुलिसवाले को जनता पर अत्याचार करते देखते हैं। उन्हें इसकी खुशी भी है कि ऊंचे पदों पर रहने के बाद भी वे विनम्रता व कृतज्ञता जैसे गुणों को कायम रख पाए हैं।यह कृति अपने समय के कई महत्वपूर्ण दस्तावेज भी समेटे हुए हैं, जो आम पाठकों के अलावा राजनीति और प्रशासन के अध्येताओं के लिए भी उपयोगी है। पुलिस अधिकारियों को तो इसे जरूर पढ़ना चाहिए, ताकि वे व्यवस्था को बेहतर ढंग से संचालित कर सकें व अपना मानवीय चेहरा बनाए रखने में सफल हो सकें।

  • पुस्तक : ए रोड वेल ट्रैवल्ड
  • लेखक : आरके राघवन
  • प्रकाशक: वेस्टलैंड पब्लिकेशंस प्रा. लि.
  • मूल्य : 599 रुपये

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