सत्तापक्ष की तरह विपक्ष की भी एक प्रकृति होती है। दुख की बात है कि भारतीय राजनीति में पिछले पांच-छह वर्षों के दौरान विपक्ष की इस प्रकृति में विकृति पनपती दिख रही है जिसमें विरोध नीतियों के बजाय व्यक्ति केंद्रित हो गया है। इसमें देशहित के खिलाफ मुखरता को भी लोकतंत्र की लड़ाई का नाम देकर सही ठहराया जाने लगा है। यही कारण है कि 2014 से लगातार हाशिये पर खिसकते जा रहे विपक्ष ने अब अपनी पहचान भी खोनी शुरू कर दी है। देखा जाए तो एक सर्वमान्य और सक्षम नेतृत्व का अभाव आज विपक्ष का सबसे बड़ा संकट है। हालांकि कांग्रेस राहुल गांधी को सर्वमान्य नेता बनाने की असफल कोशिश करती रही है, लेकिन हर बार उसे निराशा ही मिली है। लिहाजा अब खुद पार्टी के ही कई नेताओं ने खुलकर कह दिया है कि या तो परिवारवाद जिंदा रह सकता है या फिर पार्टी, लेकिन कांग्रेस में अभी भी परिवार का झंडा उठाने वालों की संख्या ही अधिक है।
राहुल गांधी की अहम मौकों पर छुट्टी पर जाने की आदत से विपक्ष के दूसरे दल असहज
राहुल गांधी की अनियमितता और अहम मौकों पर छुट्टी पर जाने की उनकी आदत ने विपक्ष के दूसरे दलों को भी असहज करना शुरू कर दिया है। बिहार विधानसभा चुनाव में मतों की गिनती के बीच उनका छुट्टी पर जाना राजद को रास नहीं आया था। यहां तक कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी उनकी योग्यता पर संदेह जता दिया। एक तरह से कांग्र्रेस में नेतृत्व का संकट विपक्ष का नेतृत्व संकट भी बन गया है। निकट भविष्य में इस संकट का समाधान भी होता नहीं दिख रहा।
अखिल भारतीय पहचान वाला विपक्ष में कोई चेहरा ही नहीं है
दरअसल विपक्ष में कोई ऐसा चेहरा ही नहीं है, जिसकी अखिल भारतीय पहचान हो। ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन और स्टालिन जैसे नेता अपने-अपने राज्यों में तो भीड़ जुटा सकते हैं, लेकिन उसके बाहर उनका कोई प्रभाव नहीं है। इनमें किसी एक नेता को सभी विपक्षी दल अपना नेता मानने को भी तैयार नहीं हैं। ले-देकर एक मात्र शरद पवार ऐसे विपक्षी नेता हैं, जिनका सम्मान सभी दलों के नेता करते हैं। उनकी पार्टी राकांपा भले महाराष्ट्र में सिमटी हुई है, लेकिन उनमें विपक्ष को एकजुट करने की क्षमता है। शायद यही कारण है कि शिवसेना की ओर से संप्रग के नेतृत्व के लिए शरद पवार का नाम उछाला गया है, लेकिन यह भी तय है कि कांग्रेस किसी भी स्थिति में संप्रग की कमान किसी दूसरे दल और उसके नेता के हाथों में जाने नहीं देगी। इस सिलसिले में कांग्रेस नेताओं के बयान आने भी शुरू हो गए हैं।
विपक्ष में परिवार आधारित सभी पार्टियां
विपक्ष में सक्षम नेतृत्व के संकट का एक आयाम यह भी है कि लगभग सभी दल परिवार आधारित होकर रह गए हैं। कांग्रेस, तृणमूल, राजद, सपा, बसपा, झामुमो, द्रमुक, राकांपा, जदएस-सभी में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है। ये परिवार आधारित पार्टियां सैद्धांतिक रूप से लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए फिट नहीं हैं। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती, शिबू सोरेन, शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे नेता अपने दम पर जनता का भरोसा जीतने में सफल रहे, मगर बाद में उन्होंने ही नेतृत्व के स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया को रोककर उसे परिवार के हाथों में सौंप दिया।
टुकड़ों में बंटा विपक्ष एकजुट होकर सरकार को चुनौती देने में असफल
वैसे संख्या बल में देखें तो मौजूदा समय में भी लगभग 200 सांसदों के साथ विपक्ष को कमजोर नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह संख्या बल इतने टुकड़ों में बंटा है और उनके आपसी हित इस तरह आपस में टकराते हैं कि वे किसी भी मुद्दे पर एकजुट होकर सरकार को चुनौती देने की स्थिति में नहीं आ पाते। विपक्ष की इस कमजोरी का सीधा फायदा सत्तापक्ष को मिल रहा है। कहने को तो भाजपा के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी दल और कांग्रेस एक हैं, लेकिन बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी दल तृणमूल के खिलाफ खड़े हैं। वहीं केरल में कांग्रेस और वामपंथी घनघोर विरोधी हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल और आंध्र में वाइएसआर कांग्रेस भाजपा के बजाय कांग्रेस को अपना बड़ा दुश्मन मानती हैं। जाहिर है आपसी लड़ाई में विपक्ष की पहचान गुम हो गई है, जिसे हासिल करना निकट भविष्य में संभव नहीं दिख रहा है।
विपक्ष मुद्दों को धार देने और जनता को उनसे जोड़ने में रहा विफल
ऐसा नहीं है कि विपक्ष के सामने मुद्दों का अभाव हो, लेकिन वह उन मुद्दों को धार देने और जनता को उनसे जोड़ने में विफल रहा है। 2020 में सीएए, कोरोना संकट, चीनी घुसपैठ जैसे कई बड़े मुद्दे विपक्ष को मिले, लेकिन उनमें से किसी को भी वह भुनाने में विफल रहा। हालांकि सीएए के मामले में विपक्षी दलों में एकता देखने को जरूर मिली और उससे सरकार भी बैकफुट पर नजर आई, लेकिन मुसलमानों के एक तबके और कुछ वामपंथी संगठनों के अलावा उसे आम लोगों का व्यापक समर्थन नहीं मिला। वहीं कोरोना संकट और चीनी घुसपैठ के मुद्दे पर जिस तरह से कांग्रेस ने सवाल उठाए और राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ व्यक्तिगत हमले किए, वह कई विपक्षी दलों को भी रास नहीं आया।
सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाने की कीमत लोकसभा चुनाव में चुकाने के बाद भी कांग्रेस नहीं चेती
सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक पर सवाल उठाने की कीमत लोकसभा चुनाव में चुकाने के बाद भी कांग्रेस नहीं चेती। देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा और संप्रभुता के मुद्दे पर कांग्रेस का अकेले पड़ जाना सरकार के खिलाफ मुद्दों की पहचान में उसके नेतृत्व की अपरिपक्वता और दूरदर्शिता के अभाव को साफ दर्शाता है। उम्मीद है कि आगामी साल में इन सबसे विपक्ष कुछ सीख लेगा और अपनी प्रकृति में आई इस विकृति को दूर करेगा।