प्रत्येक आंदोलन की एक निश्चित आयु होती है, उसे अनंतकाल तक नहीं चलाया जा सकता

[प्रो. रसाल सिंह] : लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं
तीनों कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर पिछले करीब तीन महीने से कुछ किसान संगठनों का आंदोलन जारी है। यह आंदोलन एक तरह से भ्रम और झूठ की राजनीति का विषवृक्ष है। कई विपक्षी दल इसे सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ एक अवसर के रूप में देख रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून के समय भी विपक्ष ने ऐसा ही भ्रमजाल फैलाया था। उस समय जिस प्रकार मुसलमानों को नागरिकता छीनने और ‘देश निकाले’ का डर दिखाया गया था, ठीक उसी प्रकार इस बार किसानों को जमीन छीनने और कॉरपोरेट का बंधुआ मजदूर बनने का डर दिखाया जा रहा है। किसान संगठनों और विपक्ष को अन्नदाताओं को बहकाने का अवसर इसलिए मिला, क्योंकि सरकार सही समय पर किसानों को सही बात बताने में नाकाम रही। संपर्क और संवाद की कमी इस आंदोलन की उपज का एक बड़ा कारण है। जिन दो-तीन बिंदुओं पर विपक्ष को किसानों को भड़काने और भरमाने का मौका मिला, उनमें केंद्र सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी और सरकारी खरीद-व्यवस्था की समाप्ति, बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा ठेके पर किसानों की जमीनें लेकर उन्हेंं हड़प लेने तथा किसानों को बंधुआ मजदूर बना लेने की आशंका और विवाद होने की स्थिति में न्यायालय जाने की विकल्पहीनता का भय खड़ा किया गया।

भोले-भाले किसान पंजाब की आढ़तिया लॉबी के दुष्प्रचार के शिकार हो गए

भोले-भाले किसान पंजाब की वर्चस्वशाली और आढ़तिया लॉबी के दुष्प्रचार के भी शिकार हो गए और उनके बहकावे में आकर घर से निकल पड़े। दरअसल इन कानूनों से नुकसान बिचौलियों और आढ़तियों को होना है। इसलिए उन्होंने इन कानूनों को रद कराने के लिए सारी शक्ति और संसाधन झोंक डाले। पंजाब की कांग्रेस सरकार और आढ़तिया लॉबी द्वारा सुलगाई गई यह आग धीरे-धीरे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों में भी फैल गई। बिजली संशोधन विधेयक, पराली जलाने पर दंडात्मक कार्रवाई वाले कानून और गन्ना किसानों की लंबे समय से बकाया राशि के भुगतान में चीनी मिलों द्वारा की जा रही आनाकानी आदि कारणों ने इस आग में घी का काम किया। हालांकि 26 जनवरी की घटना के बाद इस आंदोलन ने अपना नैतिक बल खो दिया है और इसी कारण उसका चक्का जाम और रेल रोको का आयोजन सीमित असर वाला ही साबित हुआ। किसान नेताओं को यह समझने की आवश्यकता है कि उनकी घेराबंदी ने दिल्ली और आसपास के लाखों लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी में तमाम मुश्किलें खड़ी कर दी है। किसान नेताओं को इन निर्दोष नागरिकों की परेशानियों की भी चिंता करनी चाहिए और अपनी जिद छोड़नी चाहिए। जनता की सहानुभूति खोकर कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता।

किसान नेता केंद्र सरकार के प्रस्ताव को लेकर गंभीर नहीं

सरकार और धरनारत किसानों के बीच करीब एक दर्जन बार वार्ता हो चुकी है। केंद्र सरकार ने तीनों कानूनों को तत्काल रद करने के अलावा किसानों की तमाम मांगें मान ली हैं। इसके साथ ही सरकार ने समझौते और समाधान के लिए गंभीरता दिखाते हुए तीनों कानूनों को 18 महीने तक स्थगित रखने और इस बीच आंदोलनरत किसान संगठनों और सरकार के प्रतिनिधियों की संयुक्त समिति बनाने का भी वादा किया है। यह संयुक्त समिति 18 महीने की अवधि में इन कानूनों पर तमाम हितधारकों से व्यापक विचार-विमर्श कर लेगी और जो भी प्रतिगामी प्रविधान होंगे, उन्हेंं हटा दिया जाएगा। आवश्यकता पड़ने पर इस अवधि को 18 महीने से बढ़ाकर दो साल भी किया जा सकता है, जैसा कि पंजाब सरकार ने मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए प्रस्तावित किया। यह बहुत ही व्यावहारिक प्रस्ताव है। इस संयुक्त समिति के पास किसानों की दशा सुधारने के लिए कुछ ठोस और जमीनी प्रस्ताव देने का भी अवसर रहेगा, लेकिन हैरानी इस पर है कि किसान नेता इस प्रस्ताव को लेकर भी गंभीर नहीं हैं। इससे पहले वे उच्चतम न्यायालय द्वारा बनाई गई विशेषज्ञ समिति का भी बहिष्कार कर चुके हैं। यह अच्छा है कि यह समिति इस बहिष्कार र्की ंचता किए बगैर अपना काम कर रही है। यह अफसोस की बात है कि शुरू से लेकर किसान नेता तीनों कानूनों को रद करने की अपनी एकसूत्रीय मांग पर अड़े हुए हैं। इस प्रकार की जिद समाज, लोकतंत्र और स्वयं किसानों के लिए भी घातक है। बातचीत में सिर्फ कहना नहीं होता, सुनना और समझना भी होता है।

प्रत्येक आंदोलन की आयु होती है, उसे अनंतकाल तक नहीं चलाया जा सकता 

प्रत्येक आंदोलन की एक आयु होती है। उसे अनंतकाल तक नहीं चलाया जा सकता। जो किसान नेता अपनी राजनीति चमकाने के फेर में इस आंदोलन का अधिकतम दोहन कर लेना चाहते हैं और अक्टूबर तक धरना चलाने की घोषणा कर रहे हैं, वे इस बात को समझ लें कि सब कुछ पाने के फेर में जो कुछ पाया जा सकता है, उससे भी हाथ धोना पड़ जाता है। जब लंबा खिंचता आंदोलन गुटबाजी और अंतर्विरोधों का शिकार होकर टूट-बिखर जाएगा तो आज जिन किसानों ने उन्हेंं कंधों पर बैठा रखा है, वही किसान उन्हेंं कोसेंगे। किसान नेताओं की सारी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं स्वाहा हो जाएंगी और बेचारे किसान जो सचमुच समस्याग्रस्त हैं, उनके हाथ भी कुछ नहीं आएगा।

फसल की कटाई को लेकर किसान वापस लौट जाएंगे तो आंदोलन बेनतीजा खत्म हो जाएगा

रबी की फसल की कटाई का समय निकट आ रहा है। अगर उस वक्त किसान वापस लौट जाएंगे तो आंदोलन बेनतीजा खत्म हो जाएगा और अगर वे जिद में आकर जमे रहेंगे तो उनकी फसलें बर्बाद हो जाएंगी। इससे पहले से ही परेशान अन्नदाता और मुश्किलों में फंस जाएंगे। कोरोना के कारण पस्त अर्थव्यवस्था को भी इससे भारी नुकसान होगा। संभवत: सरकार ने इसी पहलू को ध्यान में रहकर इतनी निर्णायक पहल की। अब बारी किसान नेताओं की है कि वे जिद छोड़कर अपने किसान-प्रेम और देश-प्रेम का परिचय दें। उनकी जिद के चलते इस ऐतिहासिक जीत को हार में बदलने में देर नहीं लगेगी और यह हार किसानों और किसान राजनीति के लिए घातक साबित हो सकती है।