वेब सीरीज के जमाने में दूरदर्शन
वेब सीरीज के जमाने में दूरदर्शन देखोगे तो लोग तो मौज लेंगे ही। अरे जनाब, अब लोग खुल गए हैं। खुलापन उन्हें भाने लगा है। ऐसे में घपले-घोटाले या भ्रष्टाचार की बात करेंगे तो लोग तो बैकवर्ड ही कहेंगे न। अब ये बात अपने लौह पुरुष को कौन समझाए। जुटे हैं ‘आयरन ओर’ का घोटाला उजागर करने का छोर तलाशने में। पत्र पर पत्र लिख रहे हैं, लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही। कौन बताए, सियासी बाजार में टिकने का अपना ही हुनर है। यहां एक से बढ़कर एक धुरंधर आइटम लाते हैं। एक ने तो अपनी सीरीज का सीजन-2 भी लांच कर दिया। पब्लिक में भारी डिमांड है। वैसे भी पुराने साथी हैं, आपको भी कुछ टिप्स दे ही देंगे। तड़का लगाए बगैर बात नहीं बनेगी, ये जमाना ही कुछ ऐसा है। मुफ्त में दूरदर्शन के संस्कारी कार्यक्रम कोई नहीं देखता। उधर, पैसे वसूल कर वेब सीरीज देर रात तक जगाती भी है।
जिम्मेदारी का बढ़ता बोझ
उग्रवादी भले ही इनकी पहुंच से दूर हों, अपराधी बेखौफ घूमते हों और भ्रष्टाचारी बार-बार चकमा दे निकल जाते हों। इसके बावजूद इनकी खाकी की आन, बान और शान में कोई कमी नहीं आई है। यकीन नहीं होता तो किसी भी चौराहे पर सड़क के किनारे गाड़ी के कागज चेक कराते किसी आम आदमी से पूछ लें। व्यापारी वर्ग भी इनकी बहादुरी के किस्से शान से सुनाएगा। खाकी की शान में कोई अदना इंसान गुस्ताखी कतई नहीं कर सकता। खौफ सिर चढ़कर बोलता है। अब इनकी जिम्मेदारियों का दायरा बढ़ रहा है। साहब के साथ मेम साहब के ब्यूटी पार्लर तक की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। ब्यूटी पार्लर वालों ने अपॉइंटमेंट नहीं दिया तो दरोगा जी शिद्दत से लग गए अपनी ड्यूटी को अंजाम देने और पहुंच गए चर्च कांप्लेक्स। विजय पताका फहरा कर लौटे। मैडम को अपॉइंटमेंट मिला और खाकी को चैन।
बगान का पपीता
अफसर हो या सीनियर लीडर। तोहफे से खूब पिघलते हैं। सस्ते और टिकाऊ तोहफों की श्रेणी में फलों को सर्वोच्च श्रेणी में रखा गया है। अंग्रेजों के जमाने से बगानों के फलों ने तमाम की नैया पार लगाई है। कृपा खूब बरसती है। कमल दल वालों को तो खुश करने का रास्ता ही पेट से गुजरता है और पेट के लिए पपीता किसी औषधि से कम नहीं। ऐसे में अगर किशोरगंज के बाजार से खरीदा गया पपीता अपने बगान का कहा जाए तो गलत क्या है। संवाद अदायगी के दौरान बस इतना ही कहना होता है कि इधर से गुजर रहे थे, बगीचे में देखा तो आपकी याद गई। बिरले ही ऐसे सेवक मिलते हैं। मृदुभाषी है, वाणी से शहद टपकता है। ऐसे ही थोड़े न स्कूल से विश्वविद्यालय तक पहुंच गए। कुछ तो बात है, इनका बगीचा हमेशा से आबाद है।
पटरी पर आ गई गाड़ी
कोविड-19 से पैदा हुई विषम परिस्थितियों को अब भूल जाइए। सरकार हमें बता रही है कि देश आगे बढ़ चला है और आर्थिक विकास की गाड़ी पटरी पर आ गई है। इशारा सेंसेक्स की ओर है। राज्यों के खजाने की सेहत सुधर रही है, रिकार्ड जीएसटी कलेक्शन इसकी पुष्टि कर रहा है। गरीब के लिए लाइट हाउस भी तैयार हो रहे हैं और किसानों को उनकी फसल का वाजिब मूल्य भी मिलेगा। 2021 खुशियों की सौगात लेकर आ रहा है। तो राज्य, केंद्र को जीरो अंक दें या केंद्र के सत्ताधारी दल राज्य सरकार को शून्य में समेटें। इसे महज सियासी कोरम का हिस्सा मानिए। इस साल हम शून्य से एक की ओर बढ़ चुके हैं। किस्से तमाम हैं सरकारों के, लेकिन फिर भी भरोसा नहीं होता। दुष्यंत जी के शब्दों में कहें तो आपकी कालीन देखेंगे किसी दिन, इस समय तो पांव कीचड़ में सने हैं।