जानिए कैसे कृषि कानून को लेकर संसद में चर्चा के दौरान भी कोरी राजनीति ही थी हावी

संसदीय इतिहास में ऐसे सैंकड़ों मामले हैं जब स्थायी समिति के बगैर भी विधेयक पारित होते रहे हैं। लेकिन अगर संसद में चर्चा की बात की जाए तो यह फिर से साफ हो जाएगा कि अधिकतर सदस्य हर विषय पर राजनीतिक भाषण ही देते हैं।

कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग के साथ पिछले दो सप्ताह से किसान संगठन दिल्ली की सीमा पर बैठे हैं और विपक्षी राजनीतिक दल उनके साथ खड़े होकर सियासी माहौल भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन यह साफ है कि तीन महीने पहले संसद में पारित हुए विधेयक से लेकर अब तक अधिकतर ने कानून को पढ़ा ही नहीं है। किसान संगठनों के पास बताने को नहीं था कि कौन से प्रावधान उनके लिए खतरनाक हैं। जबकि संसद में लगभग 12 घंटे चली चर्चा में इक्के दुक्के सदस्यों को छोड़कर किसी ने भी किसी खास प्रावधान का जिक्र नहीं किया। समर्थन और विरोध केवल राजनीतिक लाइन पर हुआ। यही कारण है कि महाराष्ट्र की शिवसेना और राकांपा ने कुछ सवाल खड़े करते हुए परोक्ष समर्थन कर दिया। तो पंजाब की सत्ता में मौजूद कांग्रेस ने विरोध किया। कांग्रेस के दबाव में आए अकालीदल ने अपने मंत्री हरसिमरत कौर को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिलवाया। तो अकालीदल ने कांग्रेस मेनीफेस्टो की याद दिलाते हुए उसे किसान विरोधी ठहराया।

मानसून सत्र की बैठक बुलाने पर बात शुरू हुई थी तो कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने कोरोना का हवाला देते हुए इसपर सवाल खड़े किए थे। लेकिन संवैधानिक मजबूरी थी और इसीलिए सत्र बुलाना पड़ा था। अब विपक्षी दलों की ओर से ही मांग हो रही है कि शीतकालीन सत्र भी बुलाया जाए। दरअसल किसान आंदोलन के बाद विपक्ष दबाव बनाने की कोशिश मे है। यह आरोप भी लगाया जा रहा है कि सरकार ने हड़बड़ी में विधेयक लाकर बिना चर्चा उसे पारित करा लिया। स्थायी समिति में विधेयक न भेजे जाने को बड़ा मुद्दा बनाया जा रहा है।

लेकिन संसद में जो कुछ होता रहा है उस बाबत यह बेमानी हैं। स्थायी समिति की जरूरत इस मायने में अहम मानी गई थी कि वहां विधेयक पर पार्टी लाइन से इतर केवल उनकी गुणवत्ता पर बात होगी। इसीलिए वहां व्हिप जारी नहीं होता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि इन समितियों में पार्टी लाइन तो कभी कभी इतनी हावी रही है कि झड़प तक होती रही है। वैसे भी स्थायी समिति में विधेयक भेजा जाना न तो संवैधानिक बाध्यता है और न ही इन समितियों की अनुशंसा सरकार पर बाध्यकारी होती है। संसदीय इतिहास में ऐसे सैंकड़ों मामले हैं जब स्थायी समिति के बगैर भी विधेयक पारित होते रहे हैं। लेकिन अगर संसद में चर्चा की बात की जाए तो यह फिर से साफ हो जाएगा कि अधिकतर सदस्य हर विषय पर राजनीतिक भाषण ही देते हैं। यह शंका होना लाजिमी है कि कितने सदस्य विधेयकों के प्रावधानों को पढ़ते हैं। विवादों में आए कृषि विधेयको पर चर्चा के दौरान भी ऐसा ही हुआ था।

लोकसभा और राज्यसभा में विभिन्न दलों के भाषणों पर एक नजर डालते हैं- कांग्रेस नेता अधीर रंजन ने स्वीकारा था कि कांग्रेस ने मेनीफेस्टो में कहा था- ‘हम किसानों का बाजार बनाएंगे जहां वह खुले तौर पर अपना सामान बेच पाएंगे।’ लेकिन सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा किया और कहा कि वह एमएसपी और एपीएमसी खत्म करना चाहती है। राज्यसभा में कांग्रेस के तत्कालीन सदस्य अहमद पटेल ने जरूर कांग्रेस के मेनीफेस्टो पर सफाई दी थी और बताया था कि फिलहाल एक मंडी लगभग 450 किलोमीटर को कवर करती है। कांग्रेस चाहती है मंडी बढ़ाकर उस दायरे को कम किया जाए ताकि हर किसान मंडी तक पहुंच सके। लोकसभा में कांग्रेस के रवनीत सिंह ने भी एमएसपी पर सवाल उठाया लेकिन ध्यान अकाली दल पर केंद्रित रहा। उन्होंने कहा- मैं अकालीदल को चुनौती देता हूं कि केंद्रीय मंत्रिमंडल से अपनी मंत्री वापस लें। लेकिन उनका खून को सफेद हो गया है।’ जब कुछ घंटे बाद अकालीदल के सुखबीर बादल को वक्त मिला तो उन्होंने न सिर्फ हरसिमरत के इस्तीफे की घोषणा कर दी बल्कि कांग्रेस पर हमला केंद्रित रखा। दरअसल उनके भाषणों से ही यह भी स्पष्ट हो गया कि क्यों एमएसपी का लाभ पंजाब हरियाणा के किसानों तक केंद्रित है। दरअसल राष्ट्रीय स्तर पर जहां एक मंडी औसतन 450 किलोमीटर का दायरा कवर करता है वहीं पंजाब में यह दायरा 80 किलोमीटर है। जाहिर है कि वहां का किसान मंडी जा सकता है लेकिन देश के दूसरे हिस्से में यह किसानों के लिए भार है।

द्रमुक के षणमुगा सुंदरम को कुछ आशंकाएं जरूरी थी लेकिन उन्होंने इसे समय की जरूरत बताया था। उन्हें शक था कि इससे कृषि का फायदा होगा लेकिन छोटे किसान कहीं शिकार न हो जाएं। बाद में द्रमुक के ही टीआर बालू ने भी विधेयक का सीधे विरोध करने की बजाय कृषि आयोग बनाने की सिफारिश की थी ताकि वह किसानों की समस्या समझे और उसी अनुसार बदलाव हो।

राजग से संप्रग के पाले मे गई शिवसेना और खुले बाजार की पैरवी करते रहे पूर्व कृषि मंत्री व राकांपा नेताशरद पवार की पार्टी का नजरिया तो अदभुत था। लोकसभा में रांकापा सदस्य दत्तात्रय का पूरा भाषण कृषि विधेयक की बजाय स्थानीय एपीएमसी पर ज्यादा केंद्रित रहा। उन्होंने अपने भाषण का अंत भी प्याज निर्यात खोलने और एपीएमसी में हस्तक्षेप न करने को लेकर किया। जबकि राज्यसभा में राकांपा नेता प्रफुल्ल पटेल यह सुझाव देते रहे कि ‘अगर विधेयक लाने से पहले शरद पवार से चर्चा की गई होती तो अच्छा होता।’ तो शिवसेना सांसद अरविंद सामंत ने कुछ शंकाओं के साथ समर्थन और स्वागत किया।

सपा नेता रामगोपाल यादव, बसपा के सतीश मिश्रा व अन्य दलों के कई नेतओं ने विधेयकों को विरोध किया। एमएसपी खत्म होने की आशंका जताई लेकिन किसी ने भी ऐसे प्रावधान का जिक्र नहीं किया जिसे हटाया जाना चाहिए। किसान संगठनों से भी सरकार ने यही मांग की थी कि वह प्रावधान बताएं लेकिन उन्होंने नहीं बताई। ऐसे में आरोप प्रत्यारोप के दौर अभी लंबे चलें तो आश्चर्य नहीं। लेकिन यह सवाल फिर से खड़ा हो गया है कि क्या कानून राजनीति की फांस से बाहर आ पाएगा या फिर हर कानून सत्ताधारी पार्टी के नाम से जाना जाता रहेगा।