लद्दाख की ऊंची चोटियों पर कब्जे को लेकर चीन की तरफ से जो थ्योरी बताई जा रही है, यदि वो सही है तो ये काफी घातक साबित हो सकती है। दरअसल, ये थ्योरी चीन की पिपुल्स लिब्रेशन आर्मी के जवानों द्वारा माइक्रोवेव वैपंस के इस्तेमाल को लेकर सामने आई है। अमेरिकी मीडिया में छपी एक खबर में चीन के एक प्रोफेसर ने दावा किया है कि 29 अगस्त को चीन के जवानों ने यहां की ऊंची चोटियों को भारतीय जवानों से वापस लेने के लिए माइक्रोवेव वैपंस का इस्तेमाल किया था। इस तरह के वैपंस के इस्तेमाल के बाद भारतीय जवानों को समस्या होने लगी और वो चोटियों से चले गए जिसके बाद चीनी सैनिकों ने उन पर कब्जा जमा लिया। हालांकि भारत ने इस तरह के किसी भी दावे को सिरे से खारिज करते हुए कहा है कि चीन इस बारे में गलत तथ्य प्रसारित कर रहा है। आपको बता दें कि इस तरह के वैपंस के इस्तेमाल का जिक्र पहली बार भारत और चीन के बीच हो रहा है। हालांकि चीन इस तरह के हथियारों का कथिततौर पर दक्षिण चीन सागर में इस्तेमाल करता रहा है। यहां पर ये सवाल उठना लाजमी हो जाता है कि आखिर माइक्रोवेव वैपंस क्या होते हैं और ये कितने घातक होते हैं।
डायरेक्ट एनर्जी वैपंस
दरअसल, माइक्रोवेव वैपंस को डायरेक्ट एनर्जी वैपंस भी कहा जाता है। इसके दायरे में लेजर और माइक्रोवेव वैपंस दोनों ही आते हैं। इस तरह के वैपंस बेहद घातक होते हैं। हालांकि इस तरह के वैपंस से किए गए हमलों में शरीर के ऊपर बाहरी चोट के निशान या तो होते नहीं हैं या काफी कम होते हैं। लेकिन ये शरीर के अंदरुणी हिस्सों को खासा नुकसान पहुंचाते हैं। दक्षिण चीन सागर में रॉयल आस्ट्रेलियन एयरफोर्स के पायलट इस तरह के हमले से दो चार हो चुके हैं। इस तरह के हमलों की एक बेहद खास बात ये होती है कि ये जमीन से हवा में, हवा से जमीन में या जमीन से जमीन में किए जा सकते हैं। इस तरह के हमले में एक हाई एनर्जी रेज को छोड़ा जाता है। ये किरणें इंसान के शरीर में प्रविष्ठ कर उनके शरीर के हिस्सों को नुकसान पहुंचा सकती हैं।
आस्ट्रलियाई पायलट्स को पहुंची थी चोट
आस्ट्रेलियाई पायलट्स की ही यदि बात की जाए तो उन्हें इस तरह के हमलों के बाद आंखों में जलन, शरीर में हल्के घाव और कुछ अंदरुणी चोट भी आई थी। इस तरह के हमले ज्यादातर चेतावनी देने भर के लिए किए जाते हैं। युद्ध के मैदान में इस तरह के हमलों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल फिलहाल कम ही देखा गया है। इसके बाद भी इस तरह के हथियार दुनिया के कुछ बड़े देशों के पास मौजूद हैं। माइक्रोवेव वैपंस के जरिए निकलने वाली रेडिएशन बीम में किसी भी तरह की कोई आवाज नहीं होती है। इसको देख पाना भी संभव नहीं होता है। हाई फ्रीक्वेंसी पर छोड़ी गई ये किरणें दुश्मन के लिए काफी घातक साबित हो सकती हैं।
मिसाइल रोकने में भी सक्षम
माइक्रोवेव वैपंस को कई तरह की बैलेस्टिक मिसाइल, हाइपरसोनिक क्रुज मिसाइल, हाइपरसोनिक ग्लाइड मिसाइल को रोकने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। रूस, चीन, भारत, ब्रिटेन भी इस तरह के हथियारों के विकास में लगे हैं। वहीं तुर्की और ईरान का दावा है कि उनके पास इस तरह के हथियार मौजूद हैं। तुर्की का तो यहां तक का दावा है कि उसने अगस्त 2019 में इस तरह के हथियार का इस्तेमाल लीबिया में किया था। हालांकि एक तथ्य ये भी है कि इस तरह के हथियार अभी तक केवल प्रयोग तक ही सीमित हैं। माइक्रोवेव वैपंस के अंदर पार्टिकल बीम वैपन, प्लाज्मा वैपन, सॉनिक वैपन, लॉन्ग रेंज एकॉस्टिक डिवाइस भी आते हैं।
एक नजर इधर भी
अमेरिका के पास इस तरह के वैपंस में एक्टिव डिनाइल सिस्टम है जिसको यूएस एयरफोर्स ने विकसित किया है। इसको अक्सर हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में प्रदर्शनकारियों को तितरबितर करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। इससे शरीर में दर्द होने लगता है। इसके अलावा ये इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को भी नष्ट करने की ताकत रखता है। इसके अलावा विजिलेंट आई के नाम से भी एक प्रपोज्ड एयर डिफेंस सिस्टम है। इस प्रोजेक्ट के तहत किसी भी तरह के हवाई हमले को नाकाम करने की तकनीक विकसित की जा रही है। इसके अलावा इस तकनीक को हमला करने आ रही मिसाइल का पता लगाने के लिए भी विकसित किया जा रहा है। बोफोर्स एचपीएम ब्लेकआउट एक ऐसा ही हाईपावर माइक्रोवेव वैपन है, जो किसी भी तरह के उपकरणों को नष्ट कर सकता है। इसके अलावा फाइटर एयरक्राफ्ट पर लगा एईएसए रडार भी इसी तकनीक पर काम करता है।